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जैन धर्म का उद्गम और विकास
निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए अनेक निवास स्थान बनवाए। इस उल्लेख पर से स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि बुद्ध निर्वाण सं० के १०६ वें वर्ष में भी लंका में निर्ग्रन्थों का अस्तित्व था । लंका में बौद्ध धर्म का प्रवेश अशोक के पुत्र महेन्द्र द्वारा बुद्ध द्वारा बुद्धनिर्वाण से २३६ वर्ष पश्चात् हुआ कहा गया है । इस पर से लंका में जैन धर्म का प्रचार, बौद्ध धर्म से कम से कम १३० वर्ष पूर्व हो चुका था, ऐसा सिद्ध होता है । संभवतः सिंहल में जैन धर्म दक्षिण भारत में से ही होता हुआ पहुँचा होगा । जिस समय उत्तर भारत में १२ वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु ने सम्राट चन्द्रगुप्त तथा विशाख मुनिसंघ के साथ दक्षिणापथ की ओर विहार किया, तब वहाँ की जनता में जैनधर्म का प्रचार रहा होगा श्रौर इसी कारण भद्रबाहु को अपने संघ का निर्वाह होने का विश्वास हुआ होगा, ऐसा भी विद्वानों का अनुमान है । चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र सम्प्रति, एक जैन परम्परानुसार आचार्य सुहस्ति के शिष्य थे, और उन्होंने जैन धर्म का स्तूप, मन्दिर आदि निर्माण कराकर, देश भर में उसी प्रकार प्रचार किया जिस प्रकार कि अशोक ने बौद्धधर्म का किया था। रामनद और टिन्नावली की गुफाओं में ब्राह्मी लिपि के शिलालेख यद्यपि अस्पष्ट हैं, तथापि उनसे एवं प्राचीनतम तामिल ग्रन्थों से उस प्रदेश में अति प्राचीन काल में जैन धर्म का प्रचार सिद्ध होता हैं । तामिल काव्य कुरल व ठोलकप्पियम पर जैन धर्म का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है ।
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मणिमेकलई यद्यपि एक बौद्ध काव्य है, तथापि उसमें दिगम्बर मुनियों और उनके उपदेशों के अनेक उल्लेख आये हैं । जीवक चिन्तामणि, सिलप्पडिकारं नीलकेशी यशोधर काव्य आदि तो स्पष्टत: जैन कृतियाँ ही हैं । सुप्रसिद्ध जैनाचार्य समन्नभद्र के कांची से सम्बंध का उल्लेख मिलता है । कुन्दकुन्दाचार्य का सम्बन्ध, उनके एक टीकाकार शिवकुमार महाराज से बतलाते हैं । प्राकृत लोकविभाग के कर्ता सर्वनन्दि ( सन् ४५८ ) कांची नरेश सिंहवर्मा के समकालीन कहे गये हैं । दर्शनसार के अनुसार द्राविड संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि द्वारा मदुरा में सन् ४७० में की गई थी। इस प्रकार के अनेक उल्लेखों और नाना घटनाओं से सुप्रमाणित होता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में तामिल प्रदेश में जैन धर्म का अच्छा प्रचार हो चुका था ।
कदम्ब राजवंश -
कदम्बवंशी अविनीत महाराज के दान पत्र में उल्लेख है कि उन्होंने देशीगण कुन्दकुन्दान्वय के चन्द्रनंदि भट्टारक को जैन मन्दिर के लिए एक गांव का दान दिया । यह दानपत्र शक सं० ३८८ ( ई० सं० ४६६ ) का है और मर्करा नामक स्थान से मिला है । इसी वंश के युवराज काकुत्स्थ द्वारा भगवान्
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