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जैन धर्म का उद्गम और विकास मान कर पूजे जाते हैं । कहीं जैन मूर्तियाँ भैरोनाथ के नाम से पुजती हैं और कहीं वे पांडवों की मूर्तियाँ मानी जा रहीं हैं । यत्र तत्र से एकत्र कर जो अनेक जैन मूर्तियाँ पटना के संग्रहालय में सुरक्षित हैं, वे ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व की प्रमाणित होती हैं। (देखिये राय चौधरी कृत जैनिजिम इन बिहार)। चीनी यात्री हुएनत्सांग (सातवीं शताब्दी) ने अपने वैशाली के वर्णन में वहां निर्ग्रन्थों की बड़ी संख्या का उल्लेख किया है । उसने सामान्यतः यह भी कहा है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के जैन मुनि पश्चिम में तक्षशिला
और गूद्धकूट तक फैले हुए थे, तथा पूर्व में दिगम्बर निर्ग्रन्थ पुण्ड्रवर्धन और समतट तक भारी संख्या में पाये जाते थे । चीनी यात्री के इन उल्लेखों से सातवीं शती में समस्त उत्तर में जैन धर्म के सुप्रचार का अच्छा पता चलता
मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से एक अति प्राचीन स्तूप और एक दो जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष मिले हैं । यहां पाई गई पुरातत्वसामग्री पर से ज्ञात होता है कि ई० पू० की कुछ शताब्दियों से लेकर, लगभग दसवीं शताब्दी तक वहाँ जैन धर्म का एक महान केन्द्र रहा है । मूर्तियों के सिंहासनों आयागपट्टों आदि पर जो लेख मिले हैं, उनमें से कुछ में कुषाण राजाओं, जैसे कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि नामों और उनके राज्यकाल के अंकों का स्पष्ट उल्लेख पाया गया है, जिससे वे ई० सन् के प्रारम्भिक काल के सिद्ध होते हैं । प्राचीन जैन ग्रन्थों में इस स्तूप का उल्लेख मिलता है, और कहा गया है कि यह स्तूप सुपार्श्वनाथ की स्मृति में निर्माण कराया गया था, तथा पार्श्वनाथ के काल में इसका उद्धार कराया गया था । उसे देव निर्मित भी कहा गया है । आश्चर्य नहीं जो वह प्राचीन स्तूप महावीर से भी पूर्वकालीन रहा हो हरिषेण कथाकोष के 'बैरकुमार कथानक' (श्लोक १३२) में मथुरा के पाँच स्तूपों का उल्लेख आया है । यहां से ही संभवतः जैन मुनियों के पंचस्तूपान्वय का प्रारम्भ हुआ। इस अन्वय का एक उल्लेख गुप्त संवत् १५९ (सन् ४७८) का पहाड़पुर (बंगाल) के ताम्रपट से मिला है जिसके अनुसार उस समय वट गोहाली में एक जैन विहार था, जिसमें अरहंतों की पूजा के लिये निग्रन्थ आचार्य को एक दान दिया गया । ये आचार्य बनारस की पंचस्तूप निकाय के आचार्य मुहनन्दि के शिष्य कहे गये हैं। धवला टीका के रचयिता वीरसेन और जिनसेन (८-६ वीं शती) भी इसी शाखा के थे। इसी अन्वय का उल्लेख जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण में सेनान्वय के नाम से किया है। तब से इस अन्वयं की सेनगण के नाम से ही प्रसिद्धि लगातार आज तक अविच्छिन्न रूप से उसकी अनेक शाखाओं व उपशाखाओं के रूप में पाई जाती
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