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जैन मूर्तिकला
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इसी कथानक का सार आशाधर कृत प्रतिष्ठासार (३२ वीं शती) में अम्बिका के वन्दनात्मक निम्न श्लोक में मिलता है
सव्यकव्युपग-प्रियंकरसुतप्रीत्यै करे बिभ्रती । विध्याम्रस्तबकं शुभंकर-करश्लिष्टान्यहस्तांगुलिम् ॥ सिंहभर्तृ चरे स्थितां हरितभामाम्रदुमच्छायगाम् । वंदारं दशकामुकोच्छ्यजिनं देवीमिहाम्बा यजे ।।
अम्बिका की ऐसी मूर्तियां उदयगिरि-खंडगिरि की नवमुनि गुफा तथा ढंक की गुफाओं में भी पाई जाती हैं । इनमें इस मूर्ति के दो ही हाथ पाये जाते हैं, जैसा कि ऊपर वर्णित मथुरा की गुप्तकालीन प्रतिमा में भी है। किन्तु दक्षिण में जिनकांची के एक जैन मठ की दीवाल पर चित्रित अम्बिका चतुर्भुज है । उसके दो हाथों में पाश और अंकुश हैं, तथा अन्य दो हाथ अभय और वरद मुद्रा में हैं । वह आम्रवृक्ष के नीचे पद्मासन विराजमान है, और पास में बालक भी है । मैसर राज्य के अंगडि नामक स्थान के जैनमंदिर में अम्बिका की द्विभुजमूर्ति खड़ी हुई बहुत ही सुन्दर है। उसकी त्रिभंग शरीराकृति कलात्मक और लालित्यपूर्ण है । देवगढ़ के मंदिरों में तथा आबू के विमल-वसही में भी अम्बिका की मूर्ति दर्शनीय है। मथुरा संग्रहालय में हाल ही आई हुई (३३८२) पूर्वमध्यकालीन मूर्ति में देवी दो स्तंभों के बीच ललितासन बैठी है। दांयां पर कमल पर है। देवी अपनी गोद के शिशु को अत्यत वात्सल्य से दोनों हाथों से पकड़े हुए है । केशपाश व कंठहार तथा कुडलों की आकृतियां बड़ी सुन्दर हैं । बांएं किनारे सिंह बैठा है।
सरस्वती की मूति
मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त सरस्वती की मूर्ति (जे २४) लखनऊ के संग्रहालय में एक फुट साढ़े नौ इंच ऊँची हैं। देवी चौकोर आसन पर विराजमान है । सिर खंडित है। बायें हाथ में सूत्र से बंधी हुई पुस्तक है । दाहिना हाथ खंडित है, किन्तु अभय मुद्रा में रहा प्रतीत होता है । वस्त्र साड़ी जैसा है, जिसका अंचल कंधों को भी आच्छादित किये है। दोनों हाथों की कलाइयों पर एक-एक चूड़ी है, तथा दाहिने हाथ में चूड़ी से ऊपर जपमाला भी लटक रही है । देवी के दोनों ओर दो उपासक खड़े हैं, जिनके केश सुन्दरता से संवारे गये हैं । दाहिनी ओर के उपासक के हाथ में कलश है, तथा बांई ओर का उपासक हाथ जोड़े खड़ा है । दाहिनी ओर का उपासक कोट पहने हुए है, जो शक जाति
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