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जैन मूर्तियाँ
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सहित धनपति कुबेर और दूसरे पार्श्व में अपनी बाई जंघा पर बालक को बैठाये हुए मातृदेवी (अम्बिका) की प्रतिमा दिखाई देती है। इनके ऊपर दोनों ओर चार-चार कमलासीन प्रतिमाएं दिखाई गई हैं, जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, और राहु, इन आठ गृहों की प्रतीक मानी गई हैं। इस अलंकरण के आधार पर यह प्रतिमा युग-युग से मध्य-युग के संधिकाल की मानी गई है, क्योंकि यह प्रतिमाशैली उस काल में अधिक विकसित हुई थी (बी ६५, ६६) । नवग्रह और अष्ट-प्रातिहार्य युक्त एक जिन-प्रतिमा मध्यप्रदेश में जबलपुर के समीप सलीमानाबाद से भी एक वृक्ष के नीचे प्राप्त हुई थी, जो वहां की जनता द्वारा खैरामाई के नाम से पूजी जाती है (देखो-खंडहरों का वैभव, पृ-१८०) । इसी प्रकार की संधिकालीन वह एक प्रतिमा (१३८८) है जिसके सिंहासन पर पार्श्वस्थ सिंहों के बीच मीन-युगल दिखलाया गया है जिनके मुख खुले हुए हैं, और उनसे सूत्र लटक रहा हैं। आगे चलकर मीन अरनाथ तीर्थंकर का चिन्ह पाया जाता है। आदिनाथ की प्रतिमा अभी तक उन्हीं कन्धों पर बिखरे हुए केशों सहित दिखाई देती है। उसका वृषभ, तथा अन्य तीर्थंकरों के अलग-अलग चिन्ह यहां तक अधिक प्रचार में आये नहीं पाये जाते; तथापि उनका उपयोग प्रारम्भ हुआ प्रमाणित होता है। इस संबंध में राजगिर के वैभार पर्वत की नेमिनाथ की वह मूर्ति ध्यान देने योग्य है जिसके सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र की पीठ पर धारण किये हुए एक पुरुष और उसके दोनों पाश्वों में शंखों की आकृतियां पाई जाती हैं । इस मूर्ति पर के खंडित लेख में चन्द्रगुप्त का नाम पाया जाता है, जो लिपि के आधार पर गुप्तवंशी नरेश चन्दगुप्त-द्वितीय का वाची अनुमान किया जाता है । गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के काल में गुप्त सं० १०६ की बनी हुई विदिशा के समीप को उदयगिरि की गुफा में उत्कीर्ण वह पार्श्वनाथ की मूर्ति भी इस काल की मूर्तिकला के लिए ध्यान देने योग्य है । दुर्भाग्यत: मूर्ति खंडित हो चुकी है, तथापि उसके ऊपर का नागफण अपने भयंकर दांतों से बड़ा प्रभावशाली और अपने देव की रक्षा के लिये तत्पर दिखाई देता है । उत्तरप्रदेश के कहाऊं नामक स्थान से प्राप्त गुप्त सं० १४१ के लेख सहित वह स्तम्भ भी यहाँ उल्लेखनीय है जिसमें पार्श्वनाथ की तथा अन्य चार तीर्थंकरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इसी काल की अनेक जैन प्रतिमायें ग्वालियर के पास के किले, बेसनगर, बूढ़ी चंदेरी व देवगढ़ आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुई है। देवगढ़ की कुछ मूर्तियों का वहां के मन्दिरों के साथ उल्लेख किया जा चुका है। यहाँ की मूर्तियों में गुप्त व गुप्तोत्तर कालीन जैन मूर्तिकला के अध्ययन की प्रचुर सामग्री विद्यमान है । दो-चार मूर्तियों की बनावट की ओर ध्यान देने से वहां
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