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जैन मूर्तियां
पर श्रीवत्स एवं हाथों और चरणों के तलों पर चक्रचिन्ह विद्यमान हैं । आसन पर एक स्तम्भ के ऊपर धर्मचक्र है । उसकी १० स्त्री-पुरुष पूजा कर रहे हैं, जिनमें से दो धर्मचक्र स्तम्भ के समीप घुटना टेके हुए हैं, और शेष खड़े हैं । कुछ के हाथों में पुष्प है, और कुछ हाथ जोड़े हुए हैं। सभी की मुखमुद्रा वंदना के भाव को लिए हुए है । इस मूर्ति को लेख में स्पष्टतः भगवान् अर्हन्त ऋषभ की प्रतिमा कहा है ।
(२) पार्श्वनाथ की एक सुन्दर मूर्ति ( बी ६२) का सिर और उस पर नागफणा मात्र सुरक्षित मिला है । फणों के ऊपर स्वस्तिक, रत्नपात्र, त्रिरत्न, पूर्णघट और मोनयुगल, इन मंगल-द्रव्यों के चिन्ह बने हुये हैं। सिर पर घुंघराले बाल हैं । कान कुछ लम्बे, आँखों की भौंहें ऊर्णा से जुड़ी हुई व कपोल भरे हुए हैं ।
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(३) पाषाण - स्तंभ ( बी ६८) ३ फुट ३ इंच ऊंचा हैं, और उसके चारों और चार नग्न जिन-मूर्तियां हैं। श्रीवत्स सभी के वृक्ष स्थल पर है, और तीन मूर्तियों के साथ भामण्डल भी हैं, व उनमें से एक के सिर की जटाएं कंधों पर बिखरी हुई हैं । चतुर्थ मूर्ति के सिर पर सप्तकणी नाग की छाया है। इनमें से अंतिम दो स्पष्टतः आदिनाथ और पार्श्वनाथ की मूर्तियां हैं ।
( ४ ) इतिहास की दृष्टि से एक स्तम्भ का पीठ उल्लेखनीय हैं । इसके ऊपर का भाग जिसमें चारों ओर जिनप्रतिमायें रही हैं, टूट गया है, किन्तु उनके चरणों के चिन्ह बचे हुए हैं । इस पीठ के एक भाग पर धर्मचक्र खुदा हुआ है, जिसकी दो पुरुष व दो स्त्रियां पूजा कर रहे हैं, तथा दो बालक हाथों में पुष्पमालाएं लिए खड़े हैं । इस पाषाण पर लेख भी खुदा है, जिसके अनुसार यह अभिसार निवासी भट्टिदाम का आर्य ऋषिदास के उपदेश से किया हुआ दान हैं । डा० अग्रवाल का मत है कि यह उक्त धार्मिक पुरुष उसी अभिसार प्रदेश का निवासी रहा होगा जिसका यूनानी लेखकों ने भी उल्लेख किया हैं, और जो वर्तमान पेशावर विभाग के पश्चिमोत्तर का हजारा जिला सिद्ध होता हैं । उसने मथुरा में आकर जैन धर्म स्वीकार किया होगा । किन्तु इससे अधिक उचित यह प्रतीत होता है कि हजारा निवासी वह व्यक्ति पहले से जैन धर्मावलम्बी रहा होगा और मथुरा के स्तूपों और मन्दिरों की तीर्थयात्रा के लिए आया होगा, तभी वह सर्वतोभद्र प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई । पश्चिमोत्तर प्रदेश में जैन धर्म का अस्तित्व असम्भव नहीं हैं ।
प्रथम शती में
(५) एक और ध्यान देने योग्य प्रतिमा (२५०२) हैं, तीर्थंकर नेमिनाथ की । इसके दाहिनी ओर चार भुजाओं व सप्त फणों युक्त नागराज की प्रतिमा हैं, जिसके ऊपर के बाएं हाथ में हल का चिन्ह होने से वह बलराम की मानी
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