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________________ ३०० जैन कला स्थानों से प्राप्त पाषाणोत्कीर्ण चित्रकारो में जो राजगृह, श्रावस्ती, वाराणसी, कपिलवस्तु, कुशीनगर आदि की प्रतिकृतियाँ (मोडेल्स) पाई जाती हैं, उनसे भी परिखा, प्राकार तथा द्वारों, गोपुरों व अट्टालिकाओं की व्यवस्था समझ में आती है। देश के प्राचीन नगरों की बनावट व शोमा का परिचय हमें मैंगस्थनीज, फाहियान आदि यूनानी व चीनी यात्रियों द्वारा किये गये सुप्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर के वर्णन से भी प्राप्त होता है, और उसका समर्थन पटना के समीप बुलंदीबाग और कुमराहर नामक स्थानों की खुदाई से प्राप्त हुए प्राकार व राजप्रासाद आदि के भग्नावशेषों से होता है । मैंगस्थनीज के वर्णनानुसार पाटलिपुत्र नगर का प्राकार काष्ठमय था । इसकी भी प्राप्त भग्नावशेषों से पुष्टि हुई है; तथा उपलब्ध पाषाण स्तम्भों के भग्नावशेषों से शालाओं व प्रासादों की निर्माण-कला की बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होती है, जिससे जैन ग्रन्थों से प्राप्त नगरादि के वर्णन का भले प्रकार समर्थन होता है। चत्य रचना-- . जैन सूत्रों में नगर के वर्णन में तथा स्वतंत्र रूप से भी चैत्यों का उल्लेख बार-बार पाता है। यहां औपपातिक सूत्र (२) से चंपानगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में स्थित पूर्णभद्र नामक चैत्य का वर्णन दिया जाता है। वह चैत्य बहुत प्राचीन, पूर्व पुरुषों द्वारा पहले कभी निर्माण किया गया था, और सुविदित व सुविख्यात था । वह छत्र, घंटा, ध्वजा व पताकाओं से मंडित था । वहां चमर (लोमहस्त-पीछी) लटक रहे थे। वहां गोशीर्ष व सरस रक्तचन्दन से हाथ के पंजों के निशान बने हुए थे और चन्दन-कलश स्थापित थे। वहां बड़ी-बड़ी गोलाकार मालाएं लटक रही थीं। पचरंगे, सरस, सुगंधी फूलों की सजावट हो रही थी। वह कालागुरु, कुदुरुक्क एवं तुरुष्क व धूप की सुगंध से महक रहा था। वहां नटों, नर्तकों, नाना प्रकार के खिलाड़ियों, संगीतकों, भोजकों व मागधों की भीड़ लगी हुई थी। वहां बहुत लोग आते जाते रहते थे; लोग घोषणा कर-करके दान देते थे व अर्चा, वंदना, नमस्कार, पूजा, सत्कार, सम्मान करते थे। वह कल्याण, मंगल व देवतारूप चेत्य विनयपूर्वक पर्युपासना करने के योग्य था । वह दिव्य था, सब मनोकामनाओं की पूर्ति का सत्योपाय-भूत था। वहां प्रातिहार्यों का सद्भाव था । वह चेत्य याग के सहस्त्रभाग का प्रतीक्षक था । बहुत लोग आ-आकर उस पूर्णभद्र चेत्य की पूजा करते थे।" जैन चैत्य व स्तूप समोसरण के वर्णन में चैत्य वृक्षों व स्तूपों का उल्लेख किया जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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