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चैत्यवृक्ष व स्तूप
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वर्ती मानस्तंभ की वापिकाओं के नाम हैं-नंदोत्तर, नंदा, नंदीमती और नंदीघोषा । दक्षिण मानस्तंभ की वापिकाएं हैं-विजया, वैजयन्ता, जयन्ता और
अपराजिता । पश्चिम मानस्तंभ संबंधी वापिकाएं हैं- अशोका, सुप्रतियुद्धा, · कुमुदा, और पुडरीका; तथा उत्तर मानस्तंभ की वापिकाओं के नाम हैं
हृदयानंदा, महानंदा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा । ये वापिकाएं चौकोर वेदिकाओं व तोरणों से युक्त तथा जल-क्रीड़ा के योग्य दिव्य द्रव्यों व सोपानों से युक्त होती हैं । मानस्तंभ का प्रयोजन यह बतलाया गया हैं कि उसके दर्शनमात्र से दर्शकों का मद दूर हो जाता है, और उनके मन में धार्मिक श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है ।
चैत्यवृक्ष व स्तूप
समवशरण की आगे की वन भूमियों में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र, ये चार चैत्य वृक्ष होते हैं, जिनकी ऊंचाई भी तीर्थंकर के शरीर के मान से १२ गुनी होती है, और प्रत्येक चैत्यवृक्ष के आश्रित चारों दिशाओं में पाठ प्रातिहायों से युक्त चार-चार जिन प्रतिमाएं होती हैं । वनभूमि में देवभवन व भवन भूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य नौ-नौ स्तूप होते हैं। ये स्तूप तीर्थंकरों और सिद्धों की प्रतिमाओं से व्याप्त तथा छत्र के ऊपर छत्र एवं आठ मंगल द्रव्यों व ध्वजारों से शोभित होते हैं। इन स्तूपों की ऊंचाई भी चैत्यवृक्षों के समान तीर्थंकर की शरीराकृति से १२ गुनी होती है। श्रीमंडप--
समवसरण के ठीक मध्य में गंधकुटी और उसके आसपास गोलाकार बारह भोमंडप अर्थात् कोठे होते हैं। ये श्रीमंडप प्रत्येक दिशा में वीथीपथ को छोड़कर ४-४ भित्तियों के अन्तराल से तीन-तीन होते हैं, और उनकी ऊंचाई भी तीर्थंकर के शरीर से १२ गुनी होती है। धर्मोपदेश के समय ये कोठे क्रमशः पूर्व से प्रदक्षिणा क्रम से (१) गणधरों, (२) कल्पवासिनी देवियों, (३) प्रायिका व श्राविकाओं, (४) ज्योतिषी देवियों, (५) व्यंतर देवियों, (६) भवनवासिनी देवियों, (७) भवनवासी देवों, (८) व्यंतर देवों, (६) ज्योतिषी देवों, (१०) कल्पवासी देवों व इन्द्रों, (११) चक्रवर्ती आदि मनुष्यों व (१२) हाथी, सिंहादि समस्त तिर्यच जीवों के बैठने के लिये नियत होते हैं । गंधकुटी
श्रीमंडप के बीचोंबीच तीन पीठिकों के ऊपर गंधकुटी की रचना होती है, जिसका प्राकार चौकोर होता है । अन्तिम तीर्थंकर महावीर की गंधकुटी
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