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________________ २६४ जन कला कम होता गया है, जिससे वह पृथ्वीतल पट १०००० योजन तथा शिखरभूमि पर १००० योजन मात्र विस्तार युक्त हैं। पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर ५०० योजन का संकोच हो गया है, तत्पश्चात् वह ११००० योजन तक समान विस्तार से ऊपर उठकर व वहां से क्रमशः सिकुड़ता हुआ ५१५०० योजन पर सब ओर से पुनः ५०० योजन संकीर्ण हो गया है । तत्पश्चात् ११००० योजन तक समान विस्तार रखकर पुनः क्रम-हानि से २५००० योजन ऊपर जाकर वह ४६४ योजन प्रमाण सिकुड़ गया है। (१०००+५०० + ११०००+५१५०० +११०००+२५००० = १००००० योजन । १००० योजन विस्तार वाले शिखर के मध्य भाग में बारह योजन विस्तार वाली चालीस योजन ऊंची चूलिका हैं, जो क्रमशः सिकूड़ती हुई ऊपर चार योजन प्रमाण रह गई हैं। मेरु के शिखर पर व चूलिका के तलभाग में उसे चारों ओर से घेरने वाला पांडु नामक वन हैं, जिसके भीतर चारों ओर मार्गों, अट्टालिकाओं, गोपुरों व ध्वजापताकाओं से रमणीक तटवेदी है । उस वेदी के मध्यभाग में पर्वत की चूलिका को चारों ओर से घेरे हुए पांडु वन-खंड की उत्तरदिशा में अर्द्धचन्द्रमा के आकार की पांडुक शीला हैं, जो पूर्व-पश्चिम १०० योजन लम्बी व उत्तर-दक्षिण ५० योजन चौड़ी एवं ८ योजन ऊंची हैं। इस पांडुशिला के मध्य में एक सिहांसन हैं, जिसके दोनों ओर दो भद्रासन विद्यमान हैं। अभिपेक के समय जिनेन्द्र भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान कर सौधर्मेन्द्र दक्षिण पीठ पर तथा ईशानेन्द्र उत्तर पीठ पर स्थित हो अभिषेक करते हैं। नंदोश्वर द्वीप की रचना मध्यलोक का जो मध्यवर्ती एक लाख योजन विस्तार वाला जंबूद्वीप हैं, उसको क्रमशः वेष्टित किये हुए उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने विस्तार वाले लवणसमुद्र व धातकी-खंडद्वीप, कालोदसमुद्र व पुष्करवरद्वीप पुष्करवर समुद्र व वारुणीवर द्वीप एवं वारुणीवर समुद्र, तथा उसी प्रकार एक ही नामवाले क्षीरवर, घृतवर व क्षौद्रवर नामक द्वीप-समुद्र हैं। तत्पश्चात् जम्बूद्वीप से आठवां द्वीप नंदीश्वर नामक है, जिसका जैनधर्म में व जैन वास्तु एवं मूर्तिकला की परम्परा में विशेष माहात्म्य पाया जाता है। इस वलयाकार द्वीप की पूर्वादि चारों दिशाओं में वलय सीमाओं के मध्यभाग में स्थित चार अंजनगिरि नामक पर्वत हैं। प्रत्येक अंजनगिरि की चारों दिशाओं में एक-एक चौकोण द्रह (वापिका) है, जिनके नाम क्रमशः नंदा, नंदवती, नंदोत्तरा व नंदीघोषा हैं। इनके चारों ओर अशोक सप्तच्छद, चम्पक व आम्र, इन वृक्षों के चार-चार वन हैं। चारों वापियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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