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________________ व्याख्यान-४ जैन कला जीवन और कला-- जैन तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में कहा जा चुका हैं कि जीव का लक्षण उपयोग है, और वह उपयोग दो प्रकार का होता है-एक तो जीव को अपनी सत्ता का भान होता है कि मैं हूँ; और दूसरे उसे यह भी प्रतीत होता है कि मेरे आसपास अन्य पदार्थ भी हैं। प्रकृति के ये अन्य पदार्थ उसे नाना प्रकार से उपयोगी सिद्ध होते हैं। कितने ही पदार्थ, भोज्य बनकर उसके शरीर का पोषण करते हैं; तथा अन्य कितने हा पदार्थ, जैसे वृक्ष, पर्वत, गुफा आदि उसे प्रकृति की विपरीत शक्तियों-तूफान, वर्षा, ताप आदि से रक्षा करते व आश्रय देते हैं । अन्य जीव, जैसे पशु-पक्षी आदि, तो प्रकृति के पदार्थों का इतना ही उपयोग लेते हुए जीवन-यापन करते हैं, किन्तु मनुष्य अपनी ज्ञान-शक्ति के कारण इनसे कुछ विशेषता रखता है । मनुष्य में जिज्ञासा होती है। वह प्रकृति को विशेष रुप से समझना चाहता है । इसी ज्ञान-गुण के कारण उसने प्रकृति पर विशेष अधिकार प्राप्त किया है; तथा विज्ञान और दर्शन शास्त्रों का विकास किया है । मनुष्य का दूसरा गुण है-अच्छे और बुरे का विवेक । इसी गुण की प्रेरणा से उसने धर्म, नीति व सदाचार के नियम और आदर्श स्थापित किये हैं, और उन्हीं आदर्शों के अनुसार ही जीवन को परिमार्जित और सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न किया है। इसी कारण मानव-समाज उत्तरोत्तर सभ्य बनता गया है, और संसार में नाना मानव संस्कृतियों का आविष्कार हुआ हैं । मनुष्य का तीसरा विशेष गुण है-सौन्दर्य की उपासना । अपने पोषण व रक्षण के लिये मनुष्य जिन पदार्थों का ग्रहण व रक्षण करता है, उन्हें वह उत्तरोत्तर सुन्दर बनाने का भी प्रयत्न करता है। वह अपने खाद्य पदार्थों को सजाकर खाने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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