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जैन दर्शन
होना वयावृत्य तप है । धर्म शास्त्रों की वाचना, पृच्छना, अनुचिन्तन, बार-बार अवृत्ति व धर्मोपदेश, यह सब स्वाध्याय तप है । गृह, धन-धान्यादि बाह्योपाधियों तथा क्रोधादि अन्तरंगोपाधियों का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
ध्यान- (आर्त व रौद्र)
छठा अन्तिम अन्तरंग तप ध्यान है, जिसके चार भेद माने गये हैं-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल । अनिष्ट के संयोग, इष्ट के वियोग, दुख की वेदना तथा भोगों की अभिलाषा से जो संक्लेश भाव होते हैं, तथा इस अनिष्ट परिस्थिति को बदलने के लिये जो चिन्तन किया जाता है, वन सब आर्त ध्यान है । झूठ बोलने, चोरी करने, धन-सम्पत्ति की रक्षा करने तथा जीवों के घात करने में जो क्रूर परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह रौद्र ध्यान है । ये दोनों ध्यान व्यक्ति को स्वयं दुःख देते हैं, समाज में भी अशान्ति उत्पन्न करने के कारण होते हैं, एवं इनसे अशुभकर्मों का बन्ध होता हैं। इसलिये ये ध्यान अशुभ और त्याज्य माने गये हैं, शेष दो ध्यान जीव के लिये कल्याणकारी होने से शुभ हैं।
धर्म ध्यान___इन्द्रियों तथा राग-द्वेष भावों से मन का निरोध करके उसे धार्मिक चिन्तन में लगाना धर्मध्यान है । इस चिन्तन का विषय चार प्रकार का हो सकता हैआज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय और संस्थान-विचय । जब ध्याता शास्त्रोक्त तत्वों के स्वरूप, कर्मबन्ध आदि ज्ञान की व्यवस्था व चरित्र के नियम आदि के सूक्ष्म चिन्तन में ध्यान लगाता है, तब प्रामाविचय नामक ध्यान होता है । आज्ञा का अर्थ हैं-शास्त्रादेश; और विचय का अर्थ है-खोज या गवेषण । इस प्रकार शास्त्रादेश का गवेषण, अर्थात् धर्म के सिद्धान्तों को तर्क, न्याय, प्रमाण, दृष्टान्त आदि की योजना द्वारा समझने का मानसिक प्रयत्न धर्म-ध्यान है । अपाय का अर्थ है विघ्न-बाधा, अतएव धर्म के मार्ग में जो विघ्न-बाधाएं उपस्थित हों, उन्हें दूरकर धर्म की प्रभावना बढ़ाने के लिये जो चिन्तन किया जाता है, वह अपाय-विचय धर्मध्यान है । ज्ञानावरणादि कर्म किस प्रकार अपना फल देते हैं; तथा जीवन के नाना अनुभवन किस-किस अर्मोदय से प्राप्त हुए; इस प्रकार कर्मफल सम्बन्धी चिन्तन विपाक-विचय धर्मध्यान है; और लोक का स्वरूप कैसा है, उसके ऊवं अधः तिर्यक् लोकों की रचना किस प्रकार की है, और उनमें जीवों की कैसी-क्या दशाएं पाई जाती है, इत्यादि चिन्तन संस्थान-विचय
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