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________________ सम्यक् चारित्र २५३ मन्दिरों में जो मूर्तियां स्थापित हैं वे देवता नहीं, किन्तु उन देवों की साकार स्थापना रूप हैं; जिस प्रकार कि शतरंज के मोहरे, हाथी नहीं, किन्तु उनकी साकार या निराकार स्थापना मात्र हैं; भले ही हम उनमें पूज्य या अपूज्य बुद्धि स्थापित कर लें। यह स्थापना निक्षेप का स्वरूप है! इसी प्रकार द्रव्य-निक्षेप द्वारा हम वस्तु की भूत व भविष्यकालीन पर्यायर्यों या अवस्थाओं को प्रकट किया करते हैं। जैसे, जो पहले कभी राजा थे, उन्हें उनके राजा न रहने पर अब भी, राजा कहते हैं; या डाक्टरी पढ़नेवाले विद्यार्थी को भी डाक्टर कहने लगते हैं। इनके विपरीत जब हम जो वस्तु जिस समय, जिस रूप में है, उसे, उस समय, उसी अर्थबोधक शब्द द्वारा प्रकट करते हैं, तब यह भावनिक्षेप कहलाता है; जैसे व्याख्यान देते समय ही व्यक्ति को व्याख्याता कहना, और ध्यान करते समय ध्यानी । इरी प्रकार वस्तुविवेचन में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के सम्बन्ध में सतर्कता रखने का; वस्तु को उसकी सत्ता, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्व के अनुसार समझने; तथा उनके निर्देश स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान की ओर भी ध्यान देते रहने का आदेश दिया गया है; और इस प्रकार जैन शास्त्र के अध्येता को एकान्त दृष्टि से बचाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है। सम्यक् चारित्र सम्यक्त्व और ज्ञान की साधना के अतिरिक्त कर्मों के संवर व निर्जरा द्वारा मोक्ष सिद्धि के लिये चारित्र की आवश्यकता है । ऊपर बताया जा चुका है कि जीवन में धार्मिकता किसप्रकार उत्पन्न होती है । अधार्मिकता के क्षेत्र से निकाल कर धार्मिक क्षेत्र में लानेवाली वस्तु है सम्यक्त्व जिससे व्यक्ति को एक नई चेतना मिलती है कि मैं केवल अपने शरीर के साथ जीने-मरनेवाला नहीं हूँ; किन्तु एक अविनाशी तत्व हूं। यही नहीं, किन्तु इस चेतना के साथ क्रमशः उसे संसार के अन्य तत्वों का जो ज्ञान प्राप्त होता है, उससे उसका अपने जीवन की ओर तथा अपने आसपास के जीवजगत् की ओर दष्टिकोण बदल जाता है। जहां मिथ्यात्व की अवस्था में अपना स्वार्थ, अपना पोषण व दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्या भाव प्रधान था, वहां अब सम्यक्त्वी को अपने आसपास के जीवों में भी अपने समान आत्मतत्व के दर्शन होने से, उनके प्रति स्नेह, कारुण्य व सहानुभूति की भावना उत्पन्न हो जाती है। और जिन वृत्तियों के कारण जीवों में संघर्ष पाया जाता है, उनसे उसे विरक्ति होने लगती है। उसकी दृष्टि में अब एक ओर जीवन का अनुपम माहात्म्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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