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________________ २३२ जैन दर्शन उत्तम मानी गई है, जैसे हाथी, हंस आदि की; और कितनों की अप्रशस्त, जैसे गघा, ऊंट आदि की। इन्हीं दो प्रकार की गतियों की विधायक प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति नामक कर्म-प्रकृतियां मानी गई हैं । पर्याप्त शरीर वह है जिनकी इन्द्रिय आदि पुद्गल-रचना पूर्ण हो गई हैं या होने वाली हैं । अपर्याप्त शरीर वह है जिसकी पुद्गल-रचना पूर्ण होने के पूर्व ही उसका मरण अवश्यम्भावी है। इन्हीं दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों की विधायक पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो प्रकृतियां मानी गई हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में रस, रुधिर, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि और शुक्र, इन धातुषों में स्थिरता उत्पन्न होती है उसे स्थिर; और जिसके द्वारा उन्हीं धातुओं का क्रमशः विपरिवर्तन होता है उसका नाम अस्थिर प्रकृति हैं । रक्त व प्राण वायु का जो शरीर में निरंतर संचालन होता रहता है अस्थिर प्रकृति का, तथा अस्थि आदि धातुओं में जो स्थिरता पाई जाती है उसे स्थिर प्रकृति का, कार्य कहा जा सकता है। शरीर के अंगोपांगों के शुभ-लक्षण, शुभ-प्रकृति एवं अशुभ-लक्षण, अशुभ-प्रकृति के कारण होते हैं । उसी प्रकार उनके सौन्दर्य व कुरूपता के कारण सुभग व दुभंग प्रकृतियां हैं। जिस कर्म के उदय से जीव की आदेयता अर्थात् बहुमान्यता उत्पन्न होती है वह आदेय; और उससे विपरीत भाव प्रकृति अनादेय कही गई है। जिस कर्म के उदय से लोक में जीव के गुणों की ख्याति होती हैं वह यशःकोति ओर जिससे कुख्याति होती है वह अयशःकीति प्रकृति है। जिस कर्म के द्वारा शरीर के अंगोपांगों के प्रमाण व यथोचित स्थान का नियंत्रण होता है, उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से जीव को त्रिलोक-पूज्य तीर्थकर पर्याय प्राप्त होती है, वह तीर्थकर प्रकृति हैं । इस प्रकार नामकर्म की इन विविध प्रकृतियों द्वारा जीवों के शरीर, अंगोपांगों व धातु-उपधातुओं की रचना और उनके कार्य-वैचित्र्य का निर्धारण व नियमन किया गया है । प्रकृतिबन्ध के कारण ऊपर कहा जा चुका है कि कर्मबन्ध का कारण सामान्य रूप से जीव की कषायात्मक मन-वचन-काय की प्रवृत्तियां हैं । कौन सी कषायात्मक प्रवृत्तियां किन कर्म-प्रकतियों को जन्म देती है, इसका भी सूक्ष्म विचार किया गया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है:-तत्वज्ञान मोक्ष का साधन है । इस साधना की बाधक प्रवृत्तियां हैं- इस तत्वज्ञान को दूसरों से छुपाना, या जानबूझकर उसे विकृत रूप में प्रस्तुत करना; ज्ञान के विषय में किसी से मात्सर्य भाव रखना; उनके ज्ञानार्जन में बाधा उपस्थित करना, या उसे अर्जन से रोकना; व सच्चे ज्ञान में दूषण उत्पन्न करना । ये कुटिल वृत्तियां जब सम्यग्दर्शन के संबंध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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