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________________ २१६ जैन दर्शन सकता है --चेतन और अचेतन । पदार्थों की चेतनता का कारण उनमें व्याप्त, किन्तु इन्द्रियों के अगोचर, वह तत्व है, जिसे जीव या आत्मा कहा गया है। प्राणियों के अचेतन तत्व से निर्मित शरीर के भीतर, उससे स्वतंत्र इस आत्मतत्व के अस्तित्व की मान्यता यथार्थतः भारतीय तत्वज्ञान की अत्यन्त प्राचीन और मौलिक शोध है, जो प्रायः समस्त वैदिक व अवैदिक दर्शनों में स्वीकार की गई है, और यह मान्यता समस्त भारतीय संस्कृति में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सूप्रतिष्ठित पाई जाती है। केवल एकमात्र चार्वाक या बार्हस्पत्य दर्शन ऐस मिलता है जिसमें जीव या आत्मा की शरीरात्मक भौतिक तत्वों से पृथक् सत्ता नहीं मानी गई। इस दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, जैसे जड़ पदार्थों के संयोग-विशेष से ही वह शक्ति उत्पन्त्र होती है, जिसे चैतन्य कहा जाता है। यथार्थतः प्राणियों में इन जड़ तत्वों के सिवाय और कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो कोई अपनी पृथक सत्ता रखती हो, प्राणियों की उत्पत्ति के समय कहीं अन्यत्र से आती हो, अथवा शरीरात्मक भौतिक संतुलन के बिगड़ने से उत्पन्न होनेवाली अचेतनात्मक मरणावस्था के समय शरीर से निकलकर कहीं अन्यत्र जाती हो। इस दर्शन के अनुसार जगत् में केवल एकमात्र अजीव तत्व ही है । किन्तु भारतवर्ष में इस जड़वाद की परम्परा कभी पनप नहीं सकी। इसका पूर्णरूप से प्रतिपादन करनेवाला कोई प्राचीन ग्रन्थ भी प्राप्त नहीं हुआ। केवल उसके नाना अवतरण व उल्लेख हमें आत्मवादी दार्शनिकों की कृतियों में खंडन के लिये ग्रहण किये गये प्राप्त होते हैं। तथा तत्वोंपप्लवसिंह जैसे कुछ प्रकरण ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें इस अनात्मदर्शन की पुष्टि की गई है। बौद्धदर्शन आत्मवादी है या अनात्मवादी, यह प्रश्न विवादग्रस्त है। बुद्ध के वचनों से लेकर पिखले बौद्धाचार्यों की रचनाओं तक में दोनों प्रकार की वचारधाराओं के पोषक विचार प्राप्त होते हैं। इसमें एक ओर आत्मवाद अर्थात् जीव की सत्ता की स्वीकृति को मिथ्यादृष्टि कहा गया है। जीवन की प्रधारा को नदी की धारा के समान घटना-प्रवाह रूप बतलाया गया है; एवं निर्वाण की अवस्था को दीपक की उस लौ की अवस्था द्वारा समझाया गया है, जो आकाश या पाताल तथा किसी दिशा-निदिशा में न जाकर केवल बुझकर समाप्त हो जाती है। यथा--दीपो यथा नि तिमभ्युपेतो नवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । विशं न कांचित् विविशं न कांचित् स्नेहमयात् केवलमेति शांतिम् ॥ जीवो तथा निर्वृतिमम्युपेतो नवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । विशं न कांचित् विदिशं न काचित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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