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जैन साहित्य
पीने के लिये तेल ले आई, और पान में कत्थे की जगह लकड़ी का बुरादा डाल दिया। कोई अति अन्यमनरका बालक समझकर बिल्ली के पिल्ले को उठाकर लेचली। कोई मठ्ठा समझकर दूध को ही धूमायित करती थी। कोई जल को ही दूध समझकर मथने लगी, और कोई बिना सूत के माला गूथने लगी। कोई सुभग नागकुमार के पास जाकर सुख की इच्छा से कहने लगी-हे प्रिय, मैं तुम्हारी दासी हूँ।
अवतरण-८
अपभ्रंश तं तेहउ धणकंचणपउरु दिछ कुमारि वरणयरु । सियवंतु वियणु विक्छायछवि णं विणु णीरि कमलसरु ।। तं पुरं पविस्समाणएण तेण दिट्टयं । तं ण तित्थु किं पि जं ण लोयणाण इट्ठयं ॥१॥ वाविकूवसुप्पवहूसुप्पसण्णवण्णापं । मढ़विहारदेहुरेहिं सुट्ट, तं रवणयं ॥२॥ देवमंदिरेसु । तेसु अंतरं णियच्छए। सो ण तित्थु जो कयाइ पुज्जिऊण पिच्छए ॥३॥ सुरहिगंधपरिमलं पसूअएहिं फसए । सो ण तित्थु जो करेण गिहिऊण वासए ।।४।। पिक्कसालिण्णयं पणट्ठयम्मि ताणए । सो ण तित्थु जो घरम्मि लेवि तं पराणए ॥५॥ सरवरम्मि पंकयाइं भमिरभमरकंदिरे। सो ण तित्थु जो खुडेवि णेइ ताई मंदिरे ॥६॥ हत्थगिज्झवरफलाइं विभएण पिक्खए। केण कारणेण को वि तोडिउं ण भक्खए ॥७॥ पिच्छिऊण परधणाइं सुब्भए ण लुब्भए। अप्पणम्मि अप्पए वियप्पए सुचितए ॥५॥
(भविसयत्तकहा-४, ७,)
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