________________
जिन प्राकृत भाषाओं-अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश-का उल्लेख जैन साहित्य के परिचय में यथास्थान किया व स्वरूप समझाया गया है उनके कुछ साहित्यिक अवतरण अनुवाद सहित यहां प्रस्तुत किये जाते हैं ।
अवतरण-१
अर्धमागधी प्राकृत पुच्छिसु णं समणा माहाणा य अगारिणो य परितित्थिया य । से केइ नेगन्तहियं धम्ममाहु अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥१॥ कहं च नाणं कह दंसणं से सीलं कहं नायसुयस्स आसि । जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं अहासुयं ब्रूहि जहा निसंतं ॥२॥ खेयन्नए से कुसलासुपन्ने अनन्तनाणी य अनन्तदंसी। जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स जाणाहि धम्मं च धिइं च पेहि ॥३॥ उढ्डं अहे य तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा। से निच्चनिच्चेहि समिक्ख पन्ने दीवे व धम्म समियं उदाहु ॥४॥ से सव्वदंसी अभिभूयनाणी निरामगंधे धिइमं ठियप्पा । अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं गंथा अईए अभए अणाऊ ॥५॥ से भूइपन्ने अणिएअचारी ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तप्पइ सूरिए वा वइरोयणिदे व तमं पणासे ॥६॥
( सूयगडं १, ६, १-६)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org