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________________ प्राकृत छंदशास्त्र १६३ के प्राकत लोक-साहित्य में से, बिना किसी धार्मिक व साम्प्रदायिक भेद भाव के लिये हैं, और अधिकांश के साथ उनके कर्ताओं का भी उल्लेख कर दिया है। कुल उदाहरणात्मक पद्यों की संख्या २०६ है, जिनमें से १२८ प्राकत के और शेष अपभ्रंश के हैं। उल्लिखित कवियों की संख्या ५८ है। जिनमें सबसे अधिक पद्यों के कर्ता सुद्धसहाव (शुद्धस्वभाव) और सुद्धसील पाये जाते हैं । आश्चर्य नहीं, वे दोनों एक ही हों। शेष में कुछ परिचित नाम हैं-कालिदास, गोविन्द, चउमुह, मयूर, वेताल, हाल आदि । दो स्त्री कवियों के नाम राहा और विज्जा ध्यान देने योग्य हैं। अपभ्रश के उदाहरणों में गोविन्द और चतुमुंख की कृतियों की प्रधानता है, और उन पर से उनकी क्रमशः हरिवंश और रामायण विषयक रचनाओं की संभावना होती है। उपर्युक्त प्रत्येक परिच्छेद के अन्तिम पद्य में स्वयंभू ने अपनी रचना को पंचंससारभूतं कहा है, जिससे उनका अभिप्राय है कि उन्होंने अपनी इस रचना में गणों का विधान द्विमात्रिक से लेकर छह मात्रिक तक पांच प्रकार से किया है। कविवर्पण नामक प्राकृत छन्द-शास्त्र के कर्ता का नाम अज्ञात है । इसका सम्पादन एक मात्र ताडपत्र प्रति पर से किया गया है, जिसके आदि और अन्त के पत्र अप्राप्त होने से दोनों ओर का कुछ भाग अज्ञात है । कर्ता का भी प्राप्त अंश से कोई पता नहीं चलता । साथ में संस्कृत टीका भी मिली है, किन्तु उसके भी कर्ता का कोई पता नहीं। तथापि नन्दिषेणकृत अजित-शान्तिस्तव के टीकाकार जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ का जो नामोल्लेख व उसके ३४ पद्य उद्धृत किये हैं, उस पर से इतना निश्चित है कि उसका रचनाकाल वि० सं० १३६५ से पूर्व है। ग्रन्थ में रत्नावली के कर्ता हर्षदेव, हेमचन्द्र, सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल आदि के नाम आये हैं, जिनसे ग्रन्थ की पूर्वावधि १३ वीं शती निश्चित हो जाती है । अर्थात् यह ग्रन्थ ईस्वी सन् १९७२ और १३०८ के बीच कभी लिखा गया है । ग्रन्थ में छह उद्देश हैं। प्रथम उद्देश में मात्रा और वर्ण गणों का, दूसरे में मात्रा छंदों का, तीसरे में वर्ण-वृत्तों का, चौथे में २६ जातियों का, पांचवें में वैतालीय आदि ११ उभयछंदों का और छठे में छह प्रत्ययों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार कुल मिलाकर २४ सम, १५ अर्घसम और १३ मिश्र अर्थात् ५२ प्राकृत छंदों का यहां निरूपण है, जो स्पष्ट ही अपूर्ण है; विशेषतः जब कि इसकी रचना स्वयंभू और हेमचन्द्र की कृतियों के पश्चात् हुई है। तथापि लेखक का उद्देश्य संपूर्ण छंदों का नहीं, किन्तु उनके कुछ सुप्रचलित रूपों मात्र का प्ररूपण करना प्रतीत होते हैं । उदाहरणों की संख्था ६९ है, जो सभी स्वयं ग्रन्थकार के स्वनिर्मित प्रतीत होते हैं। टीका में अन्य ६१ उदाहरण पाये जाते हैं, जो अन्यत्र से उद्ध त हैं। द्वितीय उद्देश अन्तर्गत मात्रावृत्तों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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