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________________ १५० जैन साहित्य इसका एक रूप यह देखा जाता है कि एकाध गाथा में कोई उपदेशात्मक बात कही, और उसके साथ ही उसके दृष्टान्त रूप उस नियम को अपने जीवन में चरितार्थ करने वाले व्यक्ति के जीवन का वृत्तान्त गद्य या पद्य में विस्तार से कह दिया । यही प्रणाली पालि की जातक कथामों में भी पाई जाती है। संस्कृत के हितोपदेश, पंचतंत्रादि प्राचीन लघुकथात्मक ग्रन्थों की भी यही शैली है। आगमों के पश्चात् इस शैली की स्वतंत्र प्राकृत रचना धर्मदास गणी कृत उपदेशमाला प्रकरण पाई जाती है। इसमें ५४४ गाथाएं हैं। जिनमें विनय, शील, व्रत, संयम, दया, ज्ञान, ध्यानादि विषयक सैकड़ों पुरुष-स्त्रियों के दृष्टान्त दिये गये हैं, व उनके चरित्र विस्तार से टीकाओं में लिखे गये हैं। टीकाएं १० वीं शती से लेकर १८ वीं शती तक अनेक लिखी गई हैं, और वे जैन लघु कथाओं के भंडार हैं । कुछ टीकाकारों के नाम हैं-जयसिंह और सिद्धर्षि (१० वीं शती), जिनभद्र और रत्नप्रभ (१२वीं शती) उदयप्रभ (१३वीं शती), अभयचन्द्र (१५वीं शती), जयशेखर, रामविजय, सर्वानन्द, धर्मनन्दन आदि । मूल गाथाओं का रचनाकाल निश्चित नहीं; किन्तु उनका मुनि-समाज में इतना आदर और प्रचार है कि उनके कर्ता तीर्थंकर महावीर के समसामयिक माने जाते हैं। तथापि गाथाओं की भाषा पर से वे ५ वीं ६ वीं शती से अधिक पूर्वकी प्रतीत नहीं होतीं। मूल कर्ता और उसके टीकाकारों के सन्मुख बौद्ध धम्मपद और उसकी बुद्धघोष कृत टीका का आदर्श रहा प्रतीत होता है, जिनमें क्रमशः ४२५ गाथाएं और ३१० कथानक पाये जाते हैं। इसी शैली पर ८ वीं शती में हरिभद्र ने अपने उपदेशपद लिखे, जिनकी गाथा संख्या १०४० है । इस पर मुनिचन्द्रसूरि की सुखबोधनी टीका (१२ वीं शती) और वर्धमान कृत वृत्ति (१३ वीं शती) पाई जाती हैं। कृष्णमुनि के शिष्य जयसिंह ने वि० सं० ६१५ में धर्मदास की कृति के अनुकरण पर ६८ गाथाएं लिखीं; और उनपर स्वयं विवरण भी लिखा । उनकी पूरी रचना धर्मोपदेश-माला-विवरण के नाम से प्रकाशित है (बम्बई, १९४६)। इसमें १५६ कथाएं समाविष्ट हैं, जिनमें शील, दान, आदि सद्गुणों का माहात्म्य तथा राग-द्वेषादि दुर्भावों के दुष्परिणाम से लेकर चोर, जुवाड़ी, शराबी तक सभी स्तरों के व्यक्ति हैं, जिनसे समाज का अच्छा चित्रण सामने आता है। प्राकृतिक भावात्मक व रसात्मक वर्णन मी सुन्दर और साहित्यिक हैं । जयसिंह सूरि के शिष्य जयकीर्तिकृत शीलोपदेश-माला भी इसी प्रकार की ११६ गाथाओं की रचना है, जिसपर सोमतिलक कृत टीका (१४वीं शती) पाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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