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________________ १४८ जैन साहित्य से मुक्त होकर अब वे धरणेन्द्र पौर पद्मावती रूप देव-देवी हुए हैं। राजा रत्नशेखर और रानी रत्नावली धर्मपालन में उतरोत्तर दृढ़ होते हुये अन्त में मरकर स्वर्ग में देव-देवी हुए। इस कथानक का विशेष महत्व यह है कि वह हिन्दी के सुप्रसिद्ध काव्य जायसी कृत पद्मावत की कथा का मूलाधार सिद्ध होता है । यहां नायक रत्नशेखर है, तो वहां रतनसेन; नायिका दोनों में सिंहल की राजकुमारी है; परस्पर प्रेमासक्ति का प्रकार भी वही है। यहां मंत्री जोगिनी बनकर सिंहल जाता है, तो वहां स्वयं नायक ही जोगी बनता है। दोनों में मिलने का स्थान देवालय है । तोता भी दोनों कथाओं में आता है; यद्यपि जायसी ने इसका उपयोग कथा के आदि से ही किया है। रत्नशेखरी के कर्ता चित्रकूट (चित्तौड़) के थे और जायसी के नायक ही चित्तौड़ के राजा थे। रत्नशेखरी में राजा द्वारा कलिंगराज को जीतने का उल्लेख है; पद्मावत में कलिंग से जोगियों का जहाज रवाना होता है । दोनों कथानकों का रूपक व रहस्यात्मक भाग बहुत कुछ मिलता है । पद्मावत का रचनाकाल शेरशाह सुलतान के समय में होने से उक्त . रचना से पीछे तो सिद्ध होता ही है। क्योंकि शेरशाह का राज्य ई० सन् १५४० में प्रारम्भ हुआ था। जम्बूसामिचरित्त उपयुक्त समस्त प्राकृत चरित्रों से अपनी विशेषता रखता है क्योंकि उसकी रचना ठीक उसी प्रकार की अर्धमागधी प्राकृत में उसी गद्यशैली से हुई है जैसी आगमों की; यहां तक कि वर्णन के संक्षेप के लिये यहां भी तदनुसार ही 'जाव', 'जहा' आदि का उपयोग किया गया है । इस पर से यह रचना वलभी वाचना काल (५वीं शती) के आसपास की प्रतीत होती है; जैसा कि सम्पादक ने अपने 'प्रवेशद्वार' में भी अनुमान किया है, (प्र० भावनगर, वि० २००४) । किन्तु ग्रन्थ के अन्त में जो एक गाथा में यह कहा गया है कि इसे विजयदया सूरिश्वर के आदेश से जिनविजय ने लिखा है, उस पर से उसका रचनाकाल वि० सं० १७८५ से १८०९ के बीच अनुमान किया गया है, क्योंकि तपागच्छ पट्टावली के अनुसार ६४ वें गुरु विजयादया सूरि का वही समय है । किन्तु संभव है यह उल्लेख ग्रन्थ की प्रतिलिपि कराने का हो, ग्रन्थ रचना का नहीं, विशेषतः जबकि ग्रन्थ के अन्त की पुष्पिका में पुनः अलग से उसके लिखे जाने का काल सं० १८१४ निर्दिष्ट है । यदि आगे खोजशोध द्वारा अन्य प्राचीन प्रतियों के बल से यही रचनाकाल सिद्ध हो तो समझना चाहिये कि १८ वीं शती में आगम शैली से यह ग्रन्थ लिखकर उक्त लेखक ने एक असाधारण कार्य किया। कथानायक जम्बूस्वामी महावीर तीर्थकर के साक्षात् शिष्य थे और उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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