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जैन साहित्य
रचनाएं भी बहुत लिखी गई हैं । जैन ग्रन्थावलि में प्राकृत में विनयचन्द्र, मावदेव जयानंदि सूरि, धर्मप्रभ देवकल्लोल व महेश्वर; तथा संस्कृत में कीर्तिचन्द्र और समयसुन्दर कृत कालकाचार्य कथाओं का उल्लेख किया गया है । किन्तु इन सबसे प्राचीन, और साहित्यिक दृष्टि से अधिक सुन्दर कृति देवेन्द्र सूरि कृत कथानक-प्रकरण-वृत्ति में समाविष्ट पाई जाती है। इसका रचना काल वि० सं० ११४६ है । कालक एक राजपुत्र थे; किन्तु गुणाकर मुनि के उपदेश से वे मुनि हो गये । उनकी छोटी बहन सरस्वती भी आर्यिका हो गई। उस पर उज्जैनी का राजा गर्दभिल्ल मोहित हो गया; और उसने उसे पकड़वाकर अपने अन्त:पुर में रक्खा। राजा को समझाकर अपनी बहन को छुड़ाने के प्रयत्न में असफल होकर कालकाचार्य शक देश को गये; और गर्दभिल्ल को पकड़कर देश से निर्वासित कर दिया गया । कालकाचार्य ने सरस्वती को पुनः संयम में दीक्षित कर लिया। उज्जैन में एक राजवंश स्थापित हो गया; जिसका उज्छेद राजा विक्रमादित्य ने करके अपना संवत् चलाया। कथा में आगे चलकर कालकाचार्य ने मरुकच्छ ओर वहाँ से प्रतिष्ठान की ओर विहार करने का वृतान्त है। उनकी राजा सातवाहन से भेंट हुई; और उनके अनुरोध से उन्होंने भाद्रपद शुक्ला ४ से पर्युषण मनाये जाने की अनुमति प्रदान कर दी; क्योंकि भाद्रपद शुक्ला ५ को इन्द्र महोत्सव मनाया जाता था। अपने शिष्यों का सम्बोधन करते हुए अन्त में का लकाचार्य ने संलेखना विधि से स्वर्गवास प्राप्त किया। इस कथा में शकों के आक्रमण और तत्पश्चात् उनके विक्रमादित्य द्वारा मूलोच्छेदन के वृतान्त में बहुत कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्रतीत होता है। साहित्यिक दृष्टि से भी यह रचना सुन्दर है । (प्रका० अमदाबाद, १९४६)
सुमतिसूरि कृत जिनदत्ताख्यान में कर्ता ने अपना इतना ही परिचय दिया कि पाडिच्छय गच्छ के कल्पद्रुम श्री नेमिचन्द्र सूरि हुए जिन्हें श्री सर्वदेव सूरि ने उतम पद पर स्थापित किया उनके शिष्य सुमति गणि ने यह जिनदत महर्षि चरित्र रचा । ग्रन्थ का रचना काल निश्चिइ नहीं है; तथापि एक प्राचीन प्रति में उसके अनहिलपाटन में सं० १२४६ में लिखाये जाने का उल्लेख है, जिससे ग्रन्थ की रचना उससे पूर्व होनी निश्चित है। कथानायक सेठ द्य तक्रीड़ा में अपना सब धन खोकर विदेश यात्रा को निकल पड़ा। दधिपुर में राजकन्या श्रीमती को व्याधि-मुक्त करके उससे विवाह किया । समुद्र यात्रा में उसे एक अन्य व्यापारी ने समुद्र में गिरा दिया; और वह एक फलक के सहारे तट पर पहुंचा। वहां से रथनूपुर चक्रवाल में पहुंचकर वहां की राज-कन्या से विवाह किया। अन्त में वह पुनः चम्पानगर को लौट आया, और वहां
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