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________________ चरणानुयोग-ध्यान १२१ कुछ नये रूप में प्रस्तुत किया है और वैदिक तथा बौद्ध परम्परा सम्मत योगधाराओं से उसका मेल बैठाने का प्रयत्न किया है। योगदृष्टि-समुच्चय पर स्वयं हरिभद्रकृत, तथा यशोविजयगणि कृत टीका उपलब्ध है। यही नहीं, किन्तु यशोविजय जी ने मित्रा तारादि आठ योगदृष्टियों पर चार द्वात्रिशिकाएं (२१-२४) भी लिखी है, और संक्षेप में गुजराती में एक छोटी सी सम्झाय भी लिखी है। ___ गुणभद्र कृत आत्मानुशासन में २७० संस्कृत पद्यों द्वारा इन्द्रियों और मन की बाह्य वृत्तियों को रोककर आत्मध्यान परक बनने का उपदेश दिया गया है। और इस प्रकार इसे योगाभ्यास की पूर्व पीठिका कह सकते हैं। यह कृति रचना में काव्य गुण युक्त है । इसके कर्ता वे ही गुणभद्राचार्य माने जाते हैं जो धवला टीकाकार वीरसेन के प्रशिष्य और जिनसेन के शिष्य थे, तथा जिन्होंने उत्तरपुराण की रचना ६ वीं शताब्दी के मध्यभाग में पूर्ण की थी । अतएव प्रस्तुत रचना का भी लगभग यही काल सिद्ध होता है । अमितगति कृत सुभाषित-रत्न-संवोह (१० वी, ११ वीं शती) एक सुभाषितों का संग्रह है जिसमें ३२ अध्यायों के भीतर उत्तम काव्य की रीति से नैतिक व धार्मिक उपदेश दिये गये हैं। प्रसंगवंश यत्रतत्र अभ्यधर्मी मान्यताओं पर आलोचनात्मक विचार भी प्रकट किये गये है। अमितगति की एक दूसरी रचना योगसार है, जिसके ६ अध्यायों में नैतिक व आध्यात्मिक उपदेश दिये गये हैं। संस्कृत में आचार सम्बन्धी और प्रसंगवश योग का भी विस्तार से वर्णन करनेवाला एक ग्रन्थ मानार्णव है । इसके कर्ता शुभचन्द्र हैं, जो राजाभोज के समकालीन ११ वीं शताब्दी में हुए माने जाते हैं। इस ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति पाटन भण्डार से सं० १२४८ की लिखी प्राप्त हुई है । इस ग्रन्थ में २००० से ऊपर श्लोक हैं, जो ४२ प्रकरणों में विभाजित हैं। इनमें जैन सिद्धान्त के प्रायः सभी विषयों का संक्षेप व विस्तार से वर्णन आ गया है। आचार सम्बन्धी व्रतों का और भावनाओं आदि का भी विस्तार से प्ररूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त आसन, प्राणायाम आदि योग की प्रक्रियाओं का तथा ध्यान के आज्ञा, विपाक व संस्थान विषयों का वर्णन किया गया है। यहां ध्यान के निरुपण में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत संज्ञाओं का प्रयोग मौलिक है, और इन ध्यान-भेदों का स्वरूप भी अपूर्व है । इक्कीसवें प्रकरण में शिवतत्व, गरुडतत्व और कामतत्व का वर्णन भी इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है । ग्रन्थकर्ता ने प्राणायाम का निरूपण तो पर्याप्त किया है, किन्तु उसे ध्यान की सिद्धि में साधक नहीं, एक प्रकार से बाधक कहकर उसके अभ्यास का निषेध किया है। यह वर्णन संस्कृत गद्य में किया गया है और उस पर श्रुतसागर कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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