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________________ जैन साहित्य अभव्य और अज्ञानी ही कहते हैं कि यह दुस्समकाल ध्यान करने का नहीं है (गा. ७४-७६ ) । ध्यान दो प्रकार से किया जा सकता है, एक तो शुद्ध आत्मचिन्तन, जिसके द्वारा योगी अपने आप में सुरक्त हो जाता है । यह निश्चयात्मक ध्यानावस्था है । जिसमें यह योग्यता नहीं है वह आत्मा का पुरुषाकार रूप से ध्यान करे (गा. ८३-८४ ) | यह ध्यान श्रमणों का है । श्रावकों को तत्वचिन्तन रूप सम्यक्त्व का निष्कंप रूप से ध्यान करना चाहिये (गा. ८६ ) । ध्यानाभ्यास के बिना बहुत से शास्त्रों का पठन और नानाविध चारित्र का पालन, बाल-श्रुत बाल-चरण ही है ( गा. १०० ) । अन्त में दो गाथाओं (१०४ १०५) में पंच परमेष्ठि, रत्नषय व तप की जिस आत्मा में प्रतिष्ठा है उसकी ही शरण सम्बन्धी भावना का निरूपण कर ग्रन्थ समाप्त किया गया है । इस प्रकार इस पाहुड में हमें जैन योग विषयक अतिप्राचीन विचार दृष्टिगोचर होते हैं जिसका परवर्ती योग विषयक रचनाओं से तुलनात्मक अध्ययन करने योग्य है । यथार्थतः यह रचना योगशतक रूप से लिखी गई प्रतीत होती है । और उसको 'योग - पाहुड' नाम भी दिया जा सकता है । पातंजल योग शास्त्र में योग के जिन यम नियमादि आठ अंगों का निरूपण किया गया है, उनमें से प्राणायाम को छोड़, शेष सात का विषय यहाँ स्फुटरूप से जैन परम्परानुसार वर्णित पाया जाता है । ११६ स्वरूप संक्षेप में बारस अणुवेक्खा ( गा०६० - ६१), में अध्र ुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, और बोधि इन बारह भावनाओं का आरम्भ में निर्देश और फिर क्रमशः उनका वर्णन किया गया है । ग्यारहवीं धर्म भावना के निरूपण में श्रावकों के दर्शन व्रत्तादि ग्यारह प्रतिमाओं ( गा० ६६) तथा मुनियों के उत्तम क्षमादि दश धर्मों का ( गा० ७० ) निर्देश किया गया है, और फिर एक एक गाथा में इन दशों का स्वरूप बतलाया गया है । अन्तिम ६१वीं गाथा में कुंदकुंद मुनिनाथ का नामोल्लेख है, किन्तु यह गाथा प्राचीन कुछ प्रतियों में नहीं प्रतियों में नहीं मिलती । इसकी कुछ गाथाएँ मूलाचार और सर्वार्थसिद्धि में पाई जाती है । इस रचना में ऐसी कोई बात दिखाई नहीं देती जिसके कारण वह कुन्दकुन्द कृत मानी न जा सके । तत्वार्थ सूत्रानुसार अनुप्रेक्षा धार्मिक साधना का एक आवश्यक अंग है; वहाँ बाहर अनुप्रेक्षाओं का निर्देशन भी किया गया है ! विक ही प्रतीत होता है, कि जब कुन्दकुन्द ने चारित्र सम्बन्धी विषयों पर लिखा तब उन्होंने बारह अनुप्रेक्षाओं का निरूपण भी अवश्य किया होगा । अतएव यह स्वाभा उक्त विवरण से स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दाचार्य की कृतियों में कहीं संक्षेप और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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