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________________ चरणानुयोग-श्रावकधर्म से पंचासग कहलाते हैं । ये प्रकरण हैं - ( १ ) श्रावकधर्म (२) दीक्षाविधान ( ३ ) वन्दनविधि ( चैत्यवंदन) (४) पूजाविधि ( ५ ) प्रत्याख्यानविधि ( ६ ) स्तवविधि (७) जिनभवन करण विधि ( ८ ) प्रतिष्ठाविधि ( 8 ) यात्राविधि (१०) उपासकप्रतिमाविधि ( ११ ) साधुधर्म ( १२ ) सामाचारी (१३) पिंड विधि (१४) शीलांग विधि (१५) आलोचना विधि (१६) प्रायश्चित्त (१७) स्थितास्थित विधि (१८) साधु प्रतिमा और (१६) तपोविधि । इन प्रकरणों में श्रावक और मुनि आचार संबंधी प्रायः समस्त विषयों का समावेश हो गया है । पंचासग पर अभयदेवसूरि कृत शिष्यहिता नामक संस्कृत टीका है । ( भावनगर १९१२. रतलाम १९४१) । पंचासग के समान अन्य २० प्रकरण इस प्रकार के हैं जिनमें प्रत्येक में २० गाथाएं हैं । यह संग्रह वीसवीसीओ (विंशतिविशिका) के नाम से प्रसिद्ध हैं । इन विशिकाओं के नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) अधिकार (२) अनादि (३) कुलनीति (४) चरमपरिवर्त (५) बीजादि (६) सद्धर्मं ( ७ ) दान (८) पूजाविधि ( ९ ) श्रावकधर्मं (१०) श्रावकप्रतिमा (११) यतिधर्मं (१२) शिक्षा (१३) भिक्षा (१४) तदंतराय शुद्धिलिंग (१५) आलोचना (१६) प्रायश्चित्त ( १७ ) योगविधान (१८) केवलज्ञान (१०) सिद्धविभक्ति और (२०) सिद्धसुख । इन विशिकाओं में भी श्रावक और मुनिधर्मं के सामान्य नियमों तथा नानाविधानों और साधनाओं का निरूपण ग्रन्थ पर आनन्दसागर सूरि द्वारा एक टीका लिखी गई है । १७ नामक विशिका पर श्री न्या० यशोविजयगणिकृत टीका भी है । पूना, १९३२) किया गया है । इस वीं योगविधान (प्र० मूलमात्र शान्तिसूरि (१२ वीं शती) कृत धर्मरत्न प्रकरण में १८१ गाथाओं द्वारा श्रावक पद प्राप्ति के लिये सौम्यता. पापभीरुता आदि २१ आवश्यक गुणों का वर्णन किया है तथा भावश्रमण के लक्षणो और शीलों का भी निरूपण किया है । इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी है । १११ प्राकृत गाथाओं द्वारा गृहस्थधर्म का प्ररूपण करने वाला दूसरा ग्रन्थ वसुनंदिकृत उपासकाध्ययन (श्रावकाचार ) है, जिसमें ५४६ गाथाओं द्वारा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं अर्थात् दर्जा का विस्तार से वर्णन किया गया है । कर्ता ने अपना परिचय ग्रथ की प्रशस्ति में दिया है, जिसके अनुसार उनकी गुरु-परपरा कुंदकु दाम्नाय में क्रमश: श्रीनंदि, नयनंदि, नेमिचन्द्र और वसुनंदि, इसप्रकार पाई जाती है । उन्होंने यह भी कहा है कि मैंने अपने गुरु नेमिचन्द्र के प्रसाद से इस आचार्य - परम्परागत उपासकाध्ययन को वात्सल्य और आदरभाव - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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