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________________ &६ जन साहित्य कुंदकुंदकृत नियमसार की १७ वीं गाथा में जो 'लोयविभागे सुणदव्वं' रूप से उल्लेख किया गया है, उसमें सम्भव है इसी सर्वनंदि कृत लोक विभाग का उल्लेख हो । आगामी तिलोयपण्णति ग्रन्थ में लोक विभाग का अनेक बार उल्लेख किया गया है। सिंहसूरि ऋषि ने यह भी कहा है कि उन्होंने अपना यह रूपान्तर उक्त ग्रंथ पर से समास अर्थात सक्षेप में लिखा है । जिस रूप में यह रचना प्राप्त हुई है उसमें २२३० श्लोक पाये जाते हैं, और वह जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, द्वीप-समुद्र, काल, ज्योतिर्लोक, भवनवासी लोक, अधोलोक, भ्यन्तरलोक, वर्गलोक, और मोक्ष इन ग्यारह विभागों में विभाजित है । ग्रन्थ में यत्र-तत्र तलीयपण्णति, आदिपुराण, त्रिलोकसार व जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति ग्रंथों के अवतरण या उल्लेख पाये जाते हैं, जिससे इसकी रचना २२ वीं शती के पश्चात् हुई अनुमान की जा सकती है। त्रैलोक्य सम्बन्धी समस्त विषयों को परिपूर्णता और सुव्यवस्था से प्रतिपादित करने वाला उपलभ्य प्राचीनतम ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति है जिसकी रचना प्राकृत गाथाओं में हुई है। यत्र-तत्र कुछ प्राकृत गद्य भी आया है, एवं अंकास्मक संदृष्टियों की उसमें बहुलता है । ग्रन्थ इन नौ महाधिकारों में विभाजित है- सामान्यलोक, नारकलोक, भवनवासी लोक, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक । ग्रन्थ की कुल गाथा-संख्या ५६७७ है । बीच बीच में इन्द्रवजा, स्रग्धरा, उपजाति, दोधक, शार्दूल-विक्रीड़ित, वसन्ततिलका और मालिनी छंदों का भी प्रयोग पाया जाता है। ग्रन्थोल्लेखों में अग्गायणी, संगोयणी, संगाहनी, दिठिवाद, परिकम्म, मूलायार, लोयविणिच्छय, लोगाइणी व लोकविभाग नाम पाये जाते हैं। मनुष्य लोकान्तर्गत त्रेसठ शलाका पुरुषों की ऐतिहासिक राजवंशीय परम्परा, महावीर निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् हुए चतुर्मुख कल्कि के काल तक वर्णित है । षट्खंडागम की वीरसेन कृत धवला टीका में तिलोयपण्णत्ति का अनेक बार उल्लेख किया गया है । इन उल्लेखों पर से इस ग्रन्थ की रचना- मूलतः ई० सन् के ५०० और ८०० के बीच हुई सिद्ध होती है। किन्तु उपलभ्य ग्रन्थ में कुछ प्रकरण ऐसे भी मिलते हैं जो उक्त वीरसेन कृत धवला टीका पर से जोड़े गये प्रतीत होते हैं। इस ग्रन्थ के कर्ता यति वृषभाचार्य है, जो कषायप्राभृत की चूणि के लेखक से अभिन्न ज्ञात होते हैं। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कत त्रिलोकसार १०१८ प्राकत गाथाओं में समाप्त हुआ है। उसमें यद्यपि कोई अध्यायों के विभाजन का निर्देश नहीं किया गया, तथापि जिन विषयों के वर्णन की आरम्भ में प्रतिज्ञा की गई है, और उसी अनुसार जो वर्णन हुआ है, उस पर से इसके लोक-सामान्य तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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