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________________ भूमिका Ixxxiii आदि पाँच अणुव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष कर्मों की जितनी स्थिति है उनमें से दो से नौ पल्योपम जितनी शेष रह जाने पर अणुव्रतों की प्राप्ति होती है । पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करना ही व्रत प्रतिमा है। सामायिकप्रतिमा - सावधयोग का त्याग कर समभाव की साधना करना सामायिक है। यह सामायिक व्रत श्रावक द्वारा एक मुहूर्त आदि की एक निर्धारित समयावधि के लिये किया जाता है। सामायिक करते समय श्रावक साधु के समान ही समभावपूर्वक जीवन जीता है। पोषधप्रतिमा - जिनदेव द्वारा प्राप्त विधि के अनुसार आहार, देह, संस्कार, अब्रह्मचर्य एवं सांसारिक आरम्भ-समारम्भ का त्याग ही पोषध कहलाता है। इन चारों के त्याग से धर्म की वृद्धि होती है। कायोत्सर्गप्रतिमा - उपर्युक्त चारों प्रतिमाओं की साधना करते हए श्रावक को अष्टमी व चतुर्दशी के दिन कायोत्सर्ग करना चाहिये । कायोत्सर्ग में कषायविजेता और त्रिलोकपूज्य जिनों का ध्यान या अपने रागादि दोषों की आलोचना करनी चाहिये। अब्रह्मवर्जनप्रतिमा - उपर्युक्त पाँचों प्रतिमाओं से युक्त श्रावक द्वारा अविचल चित्त होकर काम-वासना का पूर्णतया त्याग कर देना अब्रह्मवर्जन प्रतिमा है। सचित्तवर्जनप्रतिमा - इसमें श्रावक अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के सचित्त भोजन का त्याग करता है। आरम्भवर्जनप्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक खेती आदि वे सभी कार्य जिनमें हिंसा होती है, स्वयं छोड़ देता है लेकिन नौकरों से करवाता है । इससे उसके स्वयं द्वारा की जाने वाली हिंसा कम हो जाती है जो उसके लिये लाभदायक होती है। प्रेष्यवर्जनप्रतिमा - इसमें श्रावक खेती आदि आरम्भ नौकरों से भी नहीं करवाता है । वह सारी जिम्मेदारियाँ अपने पुत्र, पारिवारिकजनों आदि पर छोड़ देता है । न तो वह स्वयं हिंसादि पापकर्म करता है और न अन्य से करवाता है । वह धन-धान्यादि के प्रति भी ममत्व नहीं रखता है । मात्र परिजनों द्वारा पूछे जाने पर योग्य सलाह दे देता है। उद्दिष्टवर्जनप्रतिमा - इसमें श्रावक अपने लिये बने हुए भोजन आदि का भी त्याग कर देता है । मात्र परिजनों के यहाँ जाकर निर्दोष भोजन ग्रहण कर लेता है। श्रमणभूतप्रतिमा - इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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