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________________ xlviii भूमिका करती हैं या आत्म-विरोधी हैं अथवा फिर अविश्वसनीय हैं। यद्यपि यह विचारणीय है कि महावीर के गर्भ-परिवर्तन की घटना, जो कि निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व पूर्णत: मान्य हो चुकी थी, को स्वीकार करके भी हरिभद्र बलराम के गर्भ-परिवर्तन को कैसे अविश्वसनीय कह सकते हैं । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि हरिभद्र धूर्ताख्यान में एक धूर्त द्वारा अपने जीवन में घटित अविश्वसनीय घटनाओं का उल्लेख करवाकर फिर दूसरे धूर्त से यह कहलवा देते हैं कि यदि भारत ( महाभारत ), रामायण आदि में घटित उपर्युक्त घटनाएँ सत्य हैं, तो फिर यह भी सत्य हो सकता है। हरिभद्र द्वारा व्यंग्यात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो मात्र इतना ही है कि धर्म के नाम पर पलने वाले अन्धविश्वासों को नष्ट किया जाय और पौराणिक कथाओं में देव या महापुरुष के रूप में मान्य व्यक्तित्वों के चरित्र को अनैतिक रूप में प्रस्तुत करके उसकी आड़ में जो पुरोहित वर्ग अपनी दुश्चरित्रता का पोषण करना चाहता था, उसका पर्दाफाश किया जाय । उस युग का पुरोहित प्रथम तो इन महापुरुषों के चरित्रों को अनैतिक रूप में प्रस्तुत कर और उसके आधार पर यह कहकर कि यदि कृष्ण गोपियों के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं, विवाहिता राधा के साथ अपना प्रेम-प्रसंग चला सकते हैं, यदि इन्द्र महर्षि गौतम की पत्नी के साथ छल से सम्भोग कर सकता है तो फिर हमारे द्वारा यह सब करना दुराचार कैसे कहा जा सकता है? वस्तुत: जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में वे अपनी परम्परा के श्रमण वेशधारी दुश्चरित्र कुगुरुओं को फटकारते हैं, उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे ब्राह्मण परम्परा के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को लताड़ते हैं। फिर भी हरिभद्र की फटकारने की दोनों शैलियों में बहुत बड़ा अन्तर है। सम्बोधप्रकरण में वे सीधे फटकारते हैं जब कि धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शैली में । इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि छिपी हुई है। हमें जब अपने घर के किसी सदस्य को कुछ कहना होता है तो सीधे कह देते हैं, किन्तु जब दूसरों को कुछ कहना होता है तो परोक्ष रूप में तथा सभ्य शब्दावली का प्रयोग करते हैं । हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंग्यपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करते हैं और अन्य परम्परा के देव और गुरु पर सीधा आक्षेप नहीं करते हैं। दूसरे धूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय, सावयपण्णत्ति आदि से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बन्ध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह नहीं है मात्र आग्रह है तो इस बात का कि उसका चरित्र निर्दोष और निष्कलंक हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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