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________________ पञ्चाशकप्रकरणम् [ एकोनविंश अपितु अनुबन्धशुद्ध जिस तप में चित्त की विशुद्धि भंग न हो, उत्तरोत्तर बढ़ती रहे, वह तप अनुबन्धशुद्ध है ।। ४२ ।। ३५० - पूर्वोक्त तप निर्दोष आलम्बन वाले होने से विषयशुद्ध हैं। इसलिए ये प्रार्थना या आकांक्षा युक्त होते हुए भी निर्दोष हैं। क्योंकि 'आरोग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ' अर्थात् मोक्ष, मोक्ष का कारण बोधिलाभ और बोधिलाभ का कारण उत्कृष्ट समाधि समता दें' ऐसी माँग समत्व से युक्त होने से उचित है और निदान रहित है ॥ ४३ ॥ ― ――― भावशुद्धि से तप करने का उपदेश जम्हा एसो सुद्धो अणियाणो होइ भावियमईणं । तम्हा करेह सम्मं जह विरहो होइ कम्माणं ।। ४४ । यस्मादेतत् शुद्धमनिदानं भवति भावितमतीनाम् । तस्मात् कुरुत सम्यग् यथा विरहो भवति कर्मणाम् ॥ ४४ ॥ पूर्वोक्त युक्तियों से स्पष्ट है कि ये तप आगम से सम्मत, निदानरहित और विशुद्ध हैं। इसलिए भावशुद्धिपूर्वक ऐसे तप करें कि जिससे ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश हो। प्रत्येक पंचाशक के अन्त में विरह शब्द की उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि यह कृति आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित है, क्योंकि विरह शब्द का प्रयोग उनकी कृतियों का सूचक चिह्न है ॥ ४४ ॥ Jain Education International इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित पञ्चाशक का आचार्य अभयदेवसूरिकृत 'शिष्यहिता' नामक टीका के आधार पर किया गया हिन्दी भावार्थ पूर्ण हुआ। ॥ इति तपोविधिर्नाम एकोनविंशतितमं पञ्चाशकम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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