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[ अष्टादश
उपकारी होते हैं, इसलिए गच्छ में वैसा कोई दूसरा व्यक्ति न हो तब तक उनके लिए प्रतिमाकल्प का निषेध है। इस प्रकार गुरुलाघव (लाभालाभ) की विचारणा की अपेक्षा से ही प्रतिमाकल्प में दशपूर्वधर के लिए भी प्रतिमाकल्प का जो निषेध किया गया है वह युक्तिसंगत है ।। ३१ ।।
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पञ्चाशकप्रकरणम्
जिस विचारणा में थोड़े लाभ का त्याग करने से अधिक लाभ होता हो, ऐसी गुरुलाघव की विचारणा न्यायसंगत है। क्योंकि ऐसी विचारणा प्रतिमाकल्प में है, इसलिए प्रतिमाकल्प गुरुलाघव की विचारणा से रहित नहीं है ।। ३२ ।।
गाथा ३१-३२ में कही गयी तीन स्थितियों में से दूसरी स्थिति ( बाधारहित गच्छ ) का समर्थन करणणिसेहेणमंतरायंति ।
गच्छे ।
असंतंमि ।। ३४ ।।
वेयावच्चचियाणं तंपि हु परिहरियव्वं अइसुहुमो होउ एसोत्ति ॥ ३३ ॥ ता तीए किरियाए जोग्गयं उवगयाण णो हंदि उविक्खा णेया अहिगयरगुणे वैयावृत्योचितानां करणनिषेधेनान्तराय सोऽपि खलु परिहर्तव्योऽतिसूक्ष्मो भवतु एष तस्मात्तस्याः क्रियाया योग्यताम् उपगतेषु न हंदि उपेक्षा ज्ञेया अधिकतरगुणे
प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने वाले साधु वैयावृत्य नहीं करते हैं, इसलिए यदि गच्छ में वैयावृत्य करने में समर्थ साधु प्रतिमाकल्प को स्वीकार करता है तो गच्छ में रहने वाले बाल, वृद्ध, रोगी आदि की वैयावृत्य में अन्तराय होगा। प्रतिमाकल्पी साधु को अतिसूक्ष्म दोष का भी त्याग करना चाहिए । वैयावृत्य में अन्तराय रूप -- दोष मानसिक दोष न होने पर भी अतिसूक्ष्म दोष है, इसलिए प्रतिमाकल्पी साधु को सर्वप्रथम तो उस अन्तराय-दोष का परिहार करना चाहिए ।। ३३ ।।
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इति ।
इति ॥ ३३ ॥
गच्छेः ।
असति ।। ३४ ।।
यदि गच्छ के अन्य साधु सूत्रार्थदान, वैयावृत्य आदि क्रियाओं के करने में समर्थ हों तो प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने वाले साधु ने गच्छ की उपेक्षा की - ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु यदि गच्छ में ऐसे साधु न हों तो प्रतिमाकल्प का धारण उचित नहीं माना जा सकता है। पुनः यदि गच्छ में कोई ऐसा कार्य हो जिससे गच्छ को विशेष लाभ होता हो और वह कार्य प्रतिमाकल्प स्वीकार करने वाले साधु से ही हो सकता हो तो ऐसी स्थिति में उसे किये बिना
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