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प्रकाशकीय
जैन साहित्य के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र का अवदान महत्त्वपूर्ण है । आचार्य हरिभद्र के उपलब्ध ग्रन्थों में अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु उनके अनुवाद उपलब्ध नहीं होने से उन पाठकों को जो प्राकृत या संस्कृत नहीं जानते हरिभद्र के चिन्तन में अवगाहन करना कठिन हो रहा था । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने उनके उन ग्रन्थों को अनुवाद सहित प्रकाशित करने की योजना बनाई और उसी क्रम में हम आचार्य हरिभद्र के 'पञ्चाशक-प्रकरणम्' नामक ग्रन्थ को संस्कृतछाया और हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कर रहे हैं ।
पञ्चाशक के अन्तर्गत पचास-पचास गाथाओं में निबद्ध उन्नीस पञ्चाशक संगृहीत हैं । वस्तुतः पञ्चाशकप्रकरणम् उन्नीस लघुग्रन्थों का संकलन है । इसमें श्रावकधर्मविधि, जिनदीक्षाविधि, चैत्यवन्दनविधि, पूजाविधि, प्रत्याख्यानविधि, स्तवनविधि, जिनभवननिर्माणविधि, जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि, यात्राविधि, उपासकप्रतिमाविधि, आदि जैन धर्म के आचार और कर्मकाण्ड से सम्बन्धित विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन किया गया है। वस्तुतः जैन आचार और कर्मकाण्ड के सन्दर्भ में यह आठवीं शताब्दी की एक महत्त्वपूर्ण कृति है ।
इस कृति का हिन्दी अनुवाद डॉ० दीनानाथ शर्मा प्रवक्ता, उत्तर गुजरात विश्वविद्यालय, पाटण ने किया है । इस अनुवाद में उन्होंने मूलग्रन्थ के साथ-साथ टीका का भी सहारा लिया है। इसके सम्पादन का कार्य संस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन एवं डॉ० कमलेशकुमार जैन, जैनदर्शन-प्राध्यापक, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने किया है। इसके प्रारम्भ में एक व्यापक भूमिका डॉ० सागरमल जैन ने लिखी है । भूमिका-लेखन एवं प्रकाशन सम्बन्धी कार्यों में डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, डॉ० विजय कुमार एवं डॉ० सुधा जैन का अपेक्षित सहयोग हमें प्राप्त हुआ है, एतदर्थ हम उनके आभारी हैं ।
अन्त में हम सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिये नया संसार प्रेस, वाराणसी एवं मुद्रण के लिये वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं ।
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भूपेन्द्रनाथ जैन मानद सचिव पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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