SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है । अतः यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों में संगति बैठ सकती है । पुनः हरिभद्र की कृतियों में नन्दीचूर्णि से भी कुछ पाठ अवतरित हुए हैं । नन्दीचूर्णि के कर्त्ता जिनदासगणिमहत्तर ने उसका रचनाकाल शक संवत् ५९८ बताया है । अतः हरिभद्र का सत्ता- समय शक संवत् ५९८ तदनुसार ई० सन् ६७६ के बाद ही हो सकता है। यदि हम हरिभद्र के काल सम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के विक्रम संवत् को शक संवत् मानकर उनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानें तो नन्दीचूर्णि के अवतरणों की संगति बैठाने में मात्र २०-२५ वर्ष का ही अन्तर रह जाता है। अतः इतना निश्चित है कि हरिभद्र का काल ईस्वी सन् की लगभग आठवीं शताब्दी ही सिद्ध होगा । xvi इससे हरिभद्र की कृतियों में उल्लिखित कुमारिल, भर्तृहरि, धर्मकीर्ति, वृद्धधर्मोत्तर आदि से उनकी समकालिकता मानने में भी कोई बाधा नहीं आती । हरिभद्र ने जिनभद्र और जिनदास के जो उल्लेख किये हैं और हरिभद्र की कृतियों में इनके जो अवतरण मिलते हैं उनमें भी इस तिथि को मानने पर कोई बाधा नहीं आती। अतः विद्वानों को जिनविजयजी के निर्णय को मान्य करना होगा । पुनः यदि हम यह मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में उल्लिखित प्राकृत धूर्ताख्यान किसी पूर्वाचार्य की कृति थी और उसके आधार पर ही हरिभद्र ने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान की रचना की तो ऐसी स्थिति में हरिभद्र के समय को निशीथचूर्णि के रचनाकाल ईस्वी सन् ६७६ से आगे लाया जा सकता है। मुनि श्री जिनविजयजी ने अनेक आन्तर और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर अपने ग्रन्थ 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' में हरिभद्र के समय को ई० सन् ७००-७७० स्थापित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का समय वि० सं० ५८५ मानते हैं तो जिनविजयजी द्वारा निर्धारित समय और गाथोक्त समय में लगभग २०० वर्षों का अन्तर रह जाता है । इसी क्रम में मुनि धनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार' में 'रत्नसंचयप्रकरण' की निम्न गाथा का उल्लेख किया है - पणपण्णबारससए हरिभद्दोसूरि आसि पुव्वकाए । इस गाथा के आधार पर हरिभद्र का समय वीर निर्वाण संवत् १२५५ अर्थात् वि० सं० ७८५ या ईस्वी सन् ७२८ आता है । इस गाथा में उनके स्वर्गवास का उल्लेख नहीं है, अतः इसे उनका सत्ता-समय माना जा सकता है । यद्यपि उक्त गाथा की पुष्टि हेतु हमें अन्य कोई उल्लेख उपलब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy