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भूमिका
xiii
तदनुरूप ईस्वी सन् ५२९ में माना जाता है। किन्तु पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास का पूर्ववर्ती भी माना गया है। अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व मानकर उनकी कृतियों पर विशेष रूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूलस्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती रचना या लोक-परम्परा में खोजें। यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे वह निशीथचूर्णि का हो या हरिभद्र का, स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व की रचना नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रुति, पुराण, भारत (महाभारत) और रामायण का उल्लेख करते हैं। हरिभद्र ने तो एक स्थान पर विष्णुपुराण, महाभारत के अरण्यपर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख किया है, अत: निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा गया होगा। उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार महाभारत और रामायण का उल्लेख करता है। अनुयोगद्वार की विषयवस्तु के अवलोकन से ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग पाँचवीं शती की रचना है। धूर्ताख्यान में 'भारत' नाम आता है, 'महाभारत' नहीं। अतः इतना निश्चित है कि धूर्ताख्यान के कथानक के आद्यस्रोत की पूर्व सीमा ईसा की चौथी या पाँचवीं शती से आगे नहीं जा सकती। पुनः निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि में उल्लेख होने से धूर्ताख्यान के आद्यस्रोत की अपर-अन्तिम सीमा छठी-सातवीं शती के पश्चात् नहीं हो सकती। इन ग्रन्थों का रचनाकाल ईसा की सातवीं शती का उत्तरार्ध हो सकता है । अतः धूर्ताख्यान का आयस्रोत ईसा की पाँचवीं से सातवीं शती के बीच का है।
यद्यपि प्रमाणाभाव में निश्चितरूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु एक कल्पना यह भी की जा सकती है कि हरिभद्र की गुरु-परम्परा जिनभद्र
और जिनदास की हो, आगे कहीं भ्रान्तिवश जिनभद्र का जिनभट और जिनदास का जिनदत्त हो गया हो, क्योकि '६' और 'ट्ट' में के लेखन में और 'त्त' और 'स' के लेखन में हस्तप्रतों में बहुत ही कम अन्तर रहता है। पुनः हरिभद्र जैसे प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु भी प्रतिभाशाली होना चाहिए, जबकि हरिभद्र के पूर्व जिनभट्ट और जिनदत्त के होने के अन्यत्र कोई संकेत नहीं मिलते हैं। हो सकता है कि धूर्ताख्यान हरिभद्र की युवावस्था की रचना हो और उसका उपयोग उनके गुरुबन्धु सिद्धसेन क्षमाश्रमण (छठी शती) ने अपने निशीथभाष्य में तथा उनके गुरु जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि में किया हो। धूर्ताख्यान को देखने से स्पष्ट रूप से यह लगता है कि यह हरिभद्र के युवाकाल की रचना है, क्योंकि उसमें उनकी जो व्यंग्यात्मक
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