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ज्ञानार्णवः
वायु के जयसे योगी जल, कीचड़ और कण्टकसे संगत नहीं होता; किन्तु अतिशय लघु हो जाने के कारण वह महाददी आदि, विशाल कीचड़ और तीक्ष्ण काँटोंके ऊपरसे गमन करने में समर्थ होता है।
हेमचन्द्र सूरि विरचित योगशास्त्र में भी लगभग इसी अभिप्रायको इस प्रकारसे व्यक्त किया गया हैउदानके जीत लेनेपर योगी जल और कीचड़ आदिके द्वारा निर्बाध रूपसे उत्क्रमण करता है-उनके ऊपरसे अबाध गतिसे चल-फिर सकता है। दोनोंमें कुछ शब्दसाम्य भी दृष्टिगोचर होता है। यथा
उदानजयाज्जल-पङ्क-कण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च । यो. सू. ३-३९ । उत्क्रान्तिर्वारि-पङ्काद्यश्चाबाधोदाननिर्जये । यो. शा. ५-२४ (पृ.)।
यहाँ यह विशेषता भी है कि योगसूत्र (३,३९-४० ) में जहाँ केवल उदान और समान इन दो ही वायुओंके जयका फल प्रकट किया गया है वहाँ योगशास्त्र ( ५, २२-२४ ) में पांचों ही वायुओंके जयके फलका निर्देश किया गया है।
५. योगसूत्र ( ३-४१ ) के अनुसार श्रोत्र और आकाशके सम्बन्धविषयक संयमसे दिव्य श्रोत्र प्रवृत होता है। इसे स्पष्ट करते हुए इस सूत्रकी भोजदेव विरंचित वृत्तिमें कहा गया है कि उक्त संयमसे योगीके जो दिव्य श्रोत्र प्रवृत्त होता है उससे वह एक साथ सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट शब्दोंके ग्रहणमें समर्थ हो जाता है।
. तत्त्वार्थवातिक (३,३६, ३, पृ. २०२) में विशिष्ट तपके बलसे श्रोत्र इन्द्रियमें इस प्रकारका विशेष परिणमन बतलाया गया है कि जिसके प्रभावसे साधु बारह योजन लम्बे और नौ योजन चौड़े क्षेत्र में स्थित हाथो-घोड़े एवं मनुष्य आदिके अक्षर-अनक्षरस्वरूप समस्त शब्दोंको एक कालमें ग्रहण कर सकता है।
६. योगसूत्र ( ३-४२) के अनुसार शरीर और आकाश विषयक संयमसे तथा लघु तूल (रूई) में तन्मयतास्वरूप समापत्तिसे योगी आकाशमें गमन कर सकता है। इस सिद्धि के प्रभावसे वह पांवोंको धरते-उठाते हुए जलके ऊपरसे चलता है, मकड़ीके तन्तुओंके आश्रयसे गमन करता है, तथा सूर्यको किरणोंके सहारे आकाशमें विचर सकता है ।
तिलोयपण्णत्ति ( ४,१०३३-४९ ) और तत्त्वार्थवातिक (३,३६,३, पृ. २०२ ) आदि अनेक जैन ग्रन्थोंमें क्रियाविषयक ऋद्धिके चारणत्व और आकाशगामित्व ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें चारण ऋद्धिके भी जो अनेक प्रकार दिखलाये गये हैं उनमें जलचारण, मर्कटतन्तुचारण और ज्योतिश्चारण भी हैं। इन ऋद्धियोंके धारक योगी पथिवीके समान जलके ऊपरसे गमन कर सकते हैं, मकडोके तन्तुओंके आश्रयसे विचरण कर सकते हैं तथा सूर्यको किरणोंका आलम्बन लेकर विहार कर सकते हैं।
आकाशगामित्वके प्रभावसे पांवोंके उठाने-धरनेके बिना पद्मासन अथवा कायोत्सर्गसे स्थित रहकर आकाशमें गमन कर सकते हैं।
७. योगसूत्र ( ३-४५ ) में भूतजयके प्रभावसे अणिमा आदिके प्रादुर्भावके साथ कायसम्पत् और तद्धर्मानभिघात-शरीरधर्मोकी अप्रतिहतता-के आविर्भावकी सूचना की गयी है। इस सूत्रकी भोजदेव विरचित वृत्तिमें अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व इन आठका निर्देश करते हुए उनका पृथक्-पृथक् स्वरूप भी प्रकट किया गया है। भाष्यकारने भी एक गरिमाको छोड़कर शेष सातका उल्लेख किया है।
जैन दर्शनके अन्तर्गत पूर्वोक्त तिलोयपण्णत्ति (४, १०२४-३० ) और तत्त्वार्थवातिक ( ३,३६,३,
१. वृत्ति सूत्र ३-३९ ।
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