SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 724
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -८४ ] ६३५ ३५. पदस्थध्यानम् 1994 ) ततो विधृततन्द्रो ऽसौ तस्मिन् संजातनिश्चयः।। भवभ्रममपाकृत्य लोकाग्रमधिरोहति ॥८१ 1995 ) स्मर सकलसिद्धविद्याप्रधानभूतां प्रसन्नगम्भीराम् । विधुबिम्बनिर्गतामिव क्षरत्सुधार्दा महाविद्याम् ॥८२॥वीं। 1996 ) अविचलमनसा ध्यायल्ललाटदेशस्थितामिमां देवीम् । प्राप्नोति मुनिरजस्र समस्तकल्याणनिकुरुम्बम् ॥८३" 1997 ) अमृतजलधिग निःसरन्तीं सुदीप्रा मलकंतलनिषण्णां चन्द्रलेखां स्मर त्वम् । 1994) ततो विधूत-ततस्तदनन्तरम् असौ विधूततन्द्रः । तस्मिन् संजातनिश्चयः। किं • कृत्वा । भवभ्रमम् अपाकृत्य । लोकाग्रं मोक्षम् अधिरोहति । इति सूत्रार्थः ।।८१॥ अथ महाविद्यामाह। 1995) स्मर सकल-महाविद्यां स्मर चिन्तय। सकलसिद्धविद्याम् । इव उत्प्रेक्षते । विधुबिम्बनिर्गतां चन्द्रमण्डलनिर्गच्छन्ती सुधार्दी महाविद्याम् इव । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।८।। क्ष्वीं। पुनर्विशेषमाह। 1996) अविचल-इमां देवीं ललाटदेशस्थितां मुनिः अविचलमनसा ध्यायन् । अजस्रं सकलकल्याणनिकुरम्बं" समूहं प्राप्नोति । इति सूत्रार्थः ।।८३।। अथ पुनस्तदाह । ___1997) अमृतजलधि-रे सुजन, चन्द्रलेखां त्वं स्मर । कीदृशीम् । अमृतजलधिगर्भात् अमृतसमुद्रमध्यात् निःसरन्तीम् । पुनः कीदृशीम् । सुदीप्ताम् । पुनः कीदृशीम् । अलकतलनिषण्णां जीवोंरूप कमलोंको अनुरंजित करता हुआ, ज्ञानलीलाका धारक-केवलज्ञानके चमत्कारको प्रकट दिखलाता हुआ, धीर, देवोंका देव-सब ही देवोंके द्वारा पूजित और स्वयंभूके रूपमें दीखता है ॥७२-८०॥ ___ उस समय जिसे उस सर्वज्ञके विषयमें निश्चय हो चुका है ऐसा वह योगी प्रमादसे रहित होकर संसार परिभ्रमणको नष्ट करता हुआ लोकके शिखरपर अधिरोहण करता हैमुक्त हो जाता है ।।८१॥ समस्त विद्याओंकी सिद्धिकी कारण, प्रधानभूत, निर्मल व गम्भीर तथा चन्द्रमासे निकली हुई के समान झरते हुए अमृतसे आई ऐसी महाविद्या (क्ष्वी) का स्मरण करना चाहिए ।।८२॥ जो मुनि ललाट ( मस्तक ) देशमें स्थित इस देवीका चित्तकी स्थिरतापूर्वक ध्यान करता है वह निरन्तर समस्त कल्याणपरम्पराको प्राप्त करता है ।।८।। हे योगिन् ! तू मोक्षपदकी पृथिवीपर प्रभावको धारण करनेवाली उस चन्द्रकलाका १. Only in P M LS F। २. All others except P L F देशे। ३. All others except PN T निकूरम्बं । ४. N reads ओं हम्यू । ५. All others except P सुदीप्ता। ६. M N मलिनिकरनिषणां, PS T J मलिकतल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy