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३५. पदस्थध्यानम् 1985 ) वाक्पथातीतमाहात्म्यं देवदैत्योरगार्चितम् ।
विद्यार्णवमहापोतं विश्वतत्त्वप्रदीपकम् ॥७२ 1986 ) अमुमेव महामन्त्रं भावयन्नस्तसंशयः ।
अविद्याव्यालसंभूतं विषवेगं निरस्यति ॥७३ 1987 ) इति ध्यायन्नसौ ध्यानी तत्संलीनैकमानसः ।
वाङ्मनोमलमुत्सृज्य श्रुताम्भोधिं विगाहते ॥७४ 1988 ) ततो निरन्तराभ्यासान्मासैः षड्भिः स्थिराशयः ।
. मुखरन्ध्राद् विनिर्यान्तीं धूमवर्ति प्रपश्यति ॥७५ 1985) वाक्पथातीत-[ वाक्पथातोतमाहात्म्यं शब्दातीतमाहात्म्यम् । विश्वतत्त्वप्रदीपक विश्वतत्त्वप्रकाशकम् । महापोतं महतीं नावम् ।।७२।। अथैतस्य फलमाह।]
__1986) अमुमेव-अस्तसंशयः दूरीकृतसंशयः अमुं महामन्त्रम् एवं भावयन् अविद्याव्यालसंभूतविषवेगं निरस्यति । सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।७३॥ पुनस्तदेवाह ।।
__1987) इति ध्यायन्-इति पूर्वोक्तं ध्यायन् असौ योगी तत्सलीनैकमानसः तद्दत्तचित्तः वाङ्मनोमलम् उत्सृज्य त्यक्त्वा श्रुताम्भोधिं श्रुतसमुद्रं विगाहते । इति सूत्रार्थः ।।७४॥ अथ पुनस्तदेवाह।
1988) ततो निरन्तराभ्यासात्-मुखरन्ध्रात् विनिर्यान्तीं धूमवतिः प्रपश्यति । ततो निरन्तराभ्यासात् मासैः षड्भिः स्थिराशयः । इति सूत्रार्थः ॥७५।। अथ ततोऽपि विशेषमाह। भ्रुकुटिरूप लताओंके मध्यमें प्रतिभासित हो रहा हो; इस प्रकारके स्वरूपसे संयुक्त तेजोमयके समान ही उस अचिन्त्य प्रभाववाले मायावर्णका मुनिको ध्यान करना चाहिए ॥६८-७१।।
जिसकी महिमाका वर्णन वचनके द्वारा नहीं किया जा सकता है, जो देव, दैत्य व नागकुमारोंसे पूजित है, विद्यारूप समुद्रके पार पहुँचानेके लिए विशाल नौकाके समान है, तथा समस्त तत्त्वोंको दिखलानेके लिए दीपक जैसा है। ऐसे उसी महामन्त्रका सन्देहसे रहित होकर ध्यान करनेवाला योगी अज्ञानरूप सर्पसे उत्पन्न हुए विषके वेगको नष्ट करता है ॥७२-७३॥
इस प्रकारसे एकमात्र उसी महामन्त्रके विषयमें मनको संलग्न करके ध्यान करनेवाला योगी वचन और मनके मैलको दूर करके श्रुतरूप समुद्र में स्नान करता है-आगमका पारगामी हो जाता है ।।७४।।
तत्पश्चात् निरन्तर किये जानेवाले उसके ध्यानके अभ्याससे जिस योगीका चित्त छह महीनोंमें अतिशय स्थिरताको प्राप्त कर चुका है वह अपने मुखके छिद्रसे निकलती हुई धुएंकी बत्ती ( शिखा) को देखता है ।।७५|| १.J प्रकाशकम् ।
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