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________________ ५०४ ज्ञानार्णवः [२८.३६२१1508 ) [ सो' ऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । अपृथक्त्वेन यत्रात्मा लीयते परमात्मनि ॥३६-१ 1509 ) अनन्यशरणस्तद्धि तत्संलीनैकमानसः । तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा से तादात्म्याच संवसन् ॥३६*२] 1510 ) उक्तं च कटस्य कर्ताहमिति संबन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः । ध्यानं ध्येयं यदात्मैव संबन्धः कीदृशस्तदा ॥३६-३ ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्याता च ध्यानं च ध्यातृध्याने तयोरभावे। ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् । इति सूत्रार्थः ॥३६।। अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह। 1508) सो ऽयं-सो ऽयमात्मा यत्र परमात्मनि लीयते समरसीभावः सर्वत्र समस्तस्वभावः । तदेकीकरणम् एकस्वरूपावस्थानं स्मृतं कथितम् । अपृथक्त्वेन ऐक्यभावेन । इति सूत्रार्थः ॥३६२१।। [पुनस्तदेवैकीकरणमाह । ___1509) अनन्य-अन्यः न विद्यते शरणं यस्य सः । तत्संलीनैकमानसः तद्गतचित्तः । अन्यत्सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।३६२२।। ] उक्तं च शास्त्रान्तरे । ___1510) कटस्य-कटस्याहं कर्ता इति संबन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः वस्तुनोः ध्यानम् । ध्येयं वरतु यदा आत्मैव तदा संबन्धः कीदृशो भवति । इति सूत्रार्थः ।।३६*३।। अथ पुनरपि तत्स्वरूपमाह । इस प्रकारसे लीन हो जाता है कि जिससे ध्याता और ध्यान के विकल्पका अभाव हो जानेपर ध्येय (परमात्मा) के साथ वह एकता ( अभेद ) को प्राप्त हो जाता है ॥३६।। जिस भावका आश्रय कर के जीव अभेदरूपसे परमात्मामें लीन होता है वह यह समरसीभाव परमात्माके साथ अभेदको करानेवाला माना गया है। अभिप्राय यह है कि जव जीव 'जो परमात्मा है वही मैं हूँ' इस प्रकार ध्याता और ध्येयके विकल्पको छोड़कर निर्विकल्पक ध्यानमें लीन होता है तब वह उसके प्रभावसे स्वयं परमात्मा बन जाता है ॥३६-१।। योगी जब आत्माके अतिरिक्त अन्य किसीको शरण नहीं मानकर एकाग्रचित्तसे एकमात्र उसी आत्मामें लीन होता है तब वह परमात्माके साथ अभिन्न्न होकर उसीके असाधारण गुणोंसे संयुक्त होता हुआ उसीके स्वभाववाला हो जाता है ॥३६-२|| कहा भी है-'मैं चटाईका कर्ता हूँ' इस प्रकारका सम्बन्ध भिन्न स्वरूपसे अवस्थित दो-दो पदार्थों ( अहं पदसे वाच्य देवदत्तादि और चटाई )के मध्यमें हुआ करता है । परन्तु जब एकमात्र आत्मा ही ध्यान और वही ध्येय बन जाता है तब वह भेद वहाँ किस प्रकारसे रह सकता है ? नहीं रह सकता है ॥३६-३।। १. P om. | २. PQom । ३. M N शरणं । ४. M N Y °त्मा तादात्म्याच्च स एव सन, T स तदात्मा स एव सत् । ५. P QM X उक्तं च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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