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________________ ४९९ -२१] २८. सवीर्यध्यानम् 1489 ) ध्याने ह्यपरते धीमान् मनः कुर्यात् समाहितम् । निर्वेदपदमापन्नं मग्नं वा करुणाम्बुधौ ॥१९ 1490 ) अथ लोकत्रयीनाथममूर्तं परमेश्वरम् । ध्यातुप्रक्रमते साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ॥२० 1491 ) उक्तं च त्रिकालविषयं साक्षाच्छक्तिव्यक्तिविवक्षया। सामान्येन नयेनैकं परमात्मानमामनेत् ॥२०१॥ इति । 1492 ) साकारं निर्गताकारं निष्क्रियं" परमाक्षरम् । निर्विकल्पं च निष्कम्पं नित्यमानन्दमन्दिरम्॥२१ _1489) ध्याने ह्यपरते-धीमान् मनः समाहितं स्वस्थं कुर्यात् । क्व सति । ध्याने हि उपरते विरते। कीदृशं मनः । निर्वेदपदमापन्नं वैराग्यस्थानमापन्नम्। वा अथवा ।।१९।। [ध्यानिनः उद्यममाह ।] ___1490) अथ लोक-ध्यातुं साक्षात्परमात्मानं प्रक्रमते उद्यम कुरुते । अथ लोकत्रयीनाथम् अमूर्त परमेश्वरम् । अव्ययं नाशरहितम् । इति सूत्रार्थः ॥२०॥ उक्तं च शास्त्रान्तरे । _1491) त्रिकालविषयं-साक्षात्प्रकारेण त्रिकालविषयम् । कया। शक्तिव्यक्तिविवक्षया । सामान्येन नयेन एक परमात्मानम् आमनेत् । इति सूत्रार्थः ।।२०२१।। पुनरात्मस्वरूपमाह । __1492) साकारम् [निर्गताकारम् आकाररहितम् । निष्क्रिय क्रियारहितम् । निष्कम्पम् अस्थिरम् । आनन्दमन्दिरम् आनन्दमयम् । नित्यम् अविनाशि। इति सूत्रार्थः ।।२१।। ] पुनरात्मस्वरूपमाह। ध्यानके पूर्ण होनेपर बुद्धिमान योगी मनको समाहित-समाधिमें व्यवस्थित करे, अथवा वैराग्यभावको प्राप्त हुए उस मनको दयाके समुद्र में निमग्न करे ।।१९।। तत्पश्चात् उसे साक्षात् उस अविनश्वर परमात्माका ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए जो तीनों लोकोंका अधिपति होकर अमूर्त और उत्कृष्ट ऐश्वर्यसे संयुक्त है ॥२०॥ कहा भी है-जो सामान्य (द्रव्यार्थिक ) नयसे शक्ति और व्यक्तिकी विवक्षासे तीनों कालोंको विषय करनेवाला है उस एक परमात्माका ही साक्षात् ध्यान करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सब ही प्राणियोंका आत्मा साक्षात् परमात्मा होकर स्वभावतः तीनों काल और तीनों लोकोंका ज्ञाता-द्रष्टा है। इसलिए शक्ति और व्यक्तिकी अपेक्षा उस एक परमात्माका ही ध्यान करना चाहिए ॥२०२१|| परमात्माका स्वरूप-वह परमात्मा शरीरके आकार होकर भी वस्तुतः निराकार (अमूर्तिक ), परिस्पन्दादिरूप क्रियासे रहित, उत्कृष्ट ज्ञानचेतनासे सहित ( या अतिशय १. P Q. M L X Y उक्तं च । २. Q°मानमेत् । ३. P Q. इति । ४. Q साकारनिर्गताकारे । ५.QM N T X Y निश्चलं पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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