SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ ज्ञानार्णवः त्यागी नहीं हो सकता । ध्यानकी धुराको वही धारण कर सकता है जो मन व इन्द्रियोंको स्वाधीन करके समस्त परिग्रहसे निर्मुक्त हो चुका है । इस प्रकारका साधु निर्जन वनमें अथवा जनसंकीर्ण नगर आदिमें कहीं पर भी निर्भयतापूर्वक रह सकता है । इस प्रकारसे यहाँ परिग्रहकी सदोषताका विचार किया गया है ( 819-63)। १७. आशापिशाची - जबतक शरीर और धन आदिके विषयमें आशा बनी रहती है तबतक परि ग्रहत्याग महाव्रत सम्भव नहीं है । इसीलिए यहाँ बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहके परित्यागरूप महाव्रतको सिद्ध करनेके लिए अनेक दोषोंकी खानिस्वरूप उस आशाके छोड़नेकी प्रेरणा की गयी है ( 864-84 ) I १८. अक्षविषयनिरोध - पूर्वनिर्दिष्ट छठे प्रकरण में सम्यग्दर्शन और सातवें प्रकरण में सम्यग्ज्ञानका निरूपण करके आठवें प्रकरणसे सम्यक्चारित्रके कथनका उपक्रम किया गया है। उसमें क्रमसे अहिंसा आदिका निरूपण करते हुए प्रस्तुत प्रकरणके प्रारम्भ में महाव्रतके निरुक्त अर्थको प्रकट किया गया है । वहाँ यह कहा गया है कि उक्त अहिंसादि महाव्रतोंका परिपालन चूँकि महापुरुषोंके द्वारा किया जाता है, महान् अर्थकेमोक्षरूप परम पुरुषार्थ के साधक हैं, तथा स्वयं भी महान् हैं; इसीलिए उन्हें महाव्रत कहा जाता है । आगे इन महाव्रतोंकी विशुद्धिके लिए उनकी पचीस भावनाओंके चिन्तनकी प्रेरणा करते हुए पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंके स्वरूपको दिखलाया गया है । इन आठको संयमी जनोंकी जन्मदात्री माताएँ - आठ प्रवचनमातृकाएँ — कहा गया है। जिस प्रकार माता बालकका सब प्रकारसे संरक्षण किया करती है उसी प्रकारसे उक्त आठ प्रवचनमाताएं संयमी साधु जनोंका दोषोंसे संरक्षण किया करती हैं ( 906 ) । इस प्रकार से पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंस्वरूप तेरह प्रकारके सम्यक्चारित्रका निरूपण करते हुए रत्नत्रयस्वरूप आत्मा के प्रभावको प्रकट किया गया है । आगे यहाँ क्रोधादि कषायों और इन्द्रियोंके वशीभूत होनेसे उत्पन्न होनेवाले दोषों तथा उनपर विजय प्राप्त कर लेने से प्रकट होनेवाले गुणोंको दिखलाते हुए अनेक प्रकारसे उक्त कषायों और इन्द्रियों को वश में करनेका व्याख्यान किया गया है ( 885-1050 ) | १९. त्रिव - कितने ही योगी शिव, दाता मानते हैं । उनको लक्ष्य करके यहाँ यह स्वरूप जो आत्मा है वही शिव ( परमात्मा ), करना योग्य है जो अभीष्ट प्रयोजनका साधक है । इन तीन तत्वोंका निरूपण दुरूह गद्य भागमें किया गया है ( 1051-70 ) 1 गरुड़ और काम इन तीन तत्त्वोंके चिन्तनको इच्छित फलका कहा गया है कि ये आत्मासे भिन्न नहीं हैं, अनन्त ज्ञानादि - गरुड़ और काम है । अतएव उस रूपमें उसीका ध्यान यहाँ परमात्मा, पृथिव्यादि चतुष्टयस्वरूप गरुड़ और काम २०. मनोव्यापारप्रतिपादन - महर्षि पतंजलि आदि कितने ही योगियोंने योगके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठको तथा अन्य कितने ही ऋषियोंने उन आठ में से यम और नियमको छोड़कर शेष छहको ही योगका अंग माना है । कहींपर उत्साह, निश्चय, धैर्य, सन्तोष, तत्त्वदर्शन और जनपदत्याग इन छहसे योगको सिद्धि निर्दिष्ट की गयी है । मनकी स्थिरता के कारणभूत इन सबकी सूचना करते हुए यहाँ मनकी शुद्धिपर विशेष जोर दिया गया है। यह मनकी शुद्धि ध्यानकी विशुद्धि को तो करती ही है, साथ ही वह मुमुक्षुको अनादि कर्मबन्धनसे भी छुड़ाती है। जिसके आश्रयसे मुमुक्षु जीव मनस्तत्त्व ( आत्मस्वरूप ) में स्थिर हो जाता है उसे ही यथार्थ में ध्यान, विज्ञान और ध्येय तत्त्व कहा जा सकता है । मनकी स्थिरता के बिना तप, श्रुत और कायक्लेश आदि तुषखण्डनके समान निरर्थक रहते हैं | इस प्रकार यहाँ उस मनकी शुद्धिका विवेचन अनेक प्रकारसे किया गया है ( 1071-1106 ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy