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________________ १. -६७ ] १८. अक्षविषय निरोधः 954 ) यः शमः प्राक्समभ्यस्तो विवेकज्ञानपूर्वकः । तस्यैते परीक्षार्थं प्रत्यनीकाः समुत्थिताः ||६४ (1955) यदि प्रशमसीमानं भित्त्वा रुष्यामि शत्रवे । Jain Education International ३१७ उपयोगः कदास्य स्यात्तदा मे ज्ञानचक्षुषः || ६५ 956 ) अयत्नेनापि सैवेयं संजाता कर्मनिर्जरा । चित्रोपायैर्ममानेन यत्कृता भर्त्स्ययातना ॥ ६६ २ 957 ) ममापि चेद्रोह मुपैति मानसं परेषु सद्यः प्रतिकूलवर्तिषु । अपारसंसारपरायणात्मनां किमस्ति तेषां मम वा विशेषणम् ॥६७ 954 ) यः शमः - यः शमः प्राक्समभ्यस्तः । कीदृशः । विवेकज्ञानपूर्वकः । तस्य प्रागभ्यस्तोपशमस्याद्य परीक्षार्थम् एते प्रत्यनीकाः शत्रवः समुत्थिताः || ६ || अथ शमं भित्त्वा क्रोधं कुर्वे तदा धर्माभावमाह । 955 ) यदि प्रशम - यदि अहं शत्रवे वैरिणे रुष्यामि । किं कृत्वा । प्रशममर्यादां भित्त्वा । अस्य शत्रोः उपयोगः । कदा । तदा । मे मम ज्ञानचक्षुषः स्यात् । इति सूत्रार्थः ॥ ६५॥ अथ पुनः शत्रोः कृत्यमाह ! 956 ) अयत्नेनापि - इयं सा कर्मनिर्जरा संजाता अयत्नेनापि । यत् यस्मात्कारणात् । शत्रुणा मम भर्त्स्ययातना कृता अपकारवचनपूर्वकं पीडा कृतेति । ' भत्स्यं चापकारवाग्' इति शेषनागः । इति सूत्रार्थः ॥ ६६ ॥ अथ मम ज्ञानवतो ऽपि क्रोधाभावः इत्याह । उक्तं च शास्त्रान्तरे । 957 ) ममापि परेषु शत्रुषु मह्यं प्रतिकूलवर्तिषु विपरीतकारिषु । ममापि चेत: मानसं मैंने विवेकज्ञानपूर्वक जिस शान्तिका पहिले अभ्यास किया है, इस समय उसकी परीक्षा के लिए ये शत्रु उपस्थित हुए हैं ॥६४॥ यदि मैं इस समय शान्तिकी मर्यादाको लाँघकर शत्रुके ऊपर क्रोध करता हूँ तो फिर मेरे इस ज्ञानरूप नेत्रका उपयोग कब हो सकता है ? विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि ऐसे समय में साधु यह विचार करता है कि मुझे जो विवेक-बुद्धि प्राप्त है उससे यह विचार करना चाहिए कि संसारमें मेरा कोई भी शत्रु व मित्र नहीं है । यदि कोई वास्तविक शत्रु है तो वह मेरा ही पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म है और उसे यह वधबन्धनादिके द्वारा मुझसे पृथक कर रहा है - उसकी निर्जराका कारण बन रहा है । अतएव ऐसे उपकारीके ऊपर क्रोध करनेसे मेरी अज्ञानता ही प्रमाणित होगी। ऐसा सोचकर वह क्रोधके ऊपर विजय प्राप्त करता है || ६५॥ इसने अनेक प्रकारके उपायों द्वारा जो मुझे निन्दा के साथ पीड़ा की है. वही यह बिना किसी प्रकार के प्रयत्नके मेरी कर्मनिर्जराका कारण हुई है-उससे मेरे पूर्वकृत कर्म की निर्जरा ही हुई है; यह इसने मेरा बड़ा उपकार किया है ||६६ || कहा भी है- इन विरुद्ध आचरण करनेवाले दूसरे प्राणियोंके विषय में यदि मेरा भी १. All others except P प्रशममर्यादां । २. P writes this verse on the margin, JR उक्तं च शास्त्रान्तरे । ३. N चेद्रोष, J चद्रोह । ४. NT J मह्यं for सद्य: । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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