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________________ XVII [आशापिशाची ] 864 ) बाह्यान्तर्भूतनिःशेषसंगसंन्याससिद्धये । आशां सद्भिनिराकृत्य नैराश्यमवलम्बितम् ॥१ 865 ) यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति । तावत्तावन्मनुष्याणां मोहग्रन्थिदृढीभवेत् ॥२ 866 ) अनिरुद्धा सती शश्वदाशा विश्वं विसर्पति । ततो निबद्धमूलासौ पुनश्छेत्तुं न शक्यते ॥३ 864 ) बाह्यान्तर्भूत-सद्भिः सत्पुरुष राश्यमवलम्बितं निराशता अङ्गीकृता। किं कृत्वा । आशां धनाशां निराकृत्य दूरीकृत्येत्यर्थः । कस्यै। बाह्यान्तर्भूतनिःशेषसंगसंन्याससिद्धये बाह्याभ्यन्तरसर्वपरिग्रहत्यागसिद्धये इति सूत्रार्थः ।।१।। अथ धनाशावृद्धी मोहग्रन्थिवृद्धिमाह । 865 ) यावद्यावत्-यावच्छरोराशा विसर्पति विस्तरति । वा अथवा । धनाशा विसर्पति । तावत्पूर्वं तावत् मनुष्याणां मोहग्रन्थिढूढो भवेदिति सूत्रार्थः ।।२।। अथ धनाशारुन्धने फलमाह । 866 ) अनिरुद्धा-आशा धनाशा शश्वनिरन्तरं अनिरुद्धा सती विश्वं जगत् विसर्पति व्याप्नोति । ततो व्याप्त्यनन्तरं निबद्धमूला दृढमूला असौ आशा छेत्तुं पुनः न शक्यते । इति सूत्रार्थः ।।३।। अथ धनाशाशान्तो फल माह । साधुजनोंने बाह्य और अभ्यन्तररूप समस्त परिग्रह के त्यागको सिद्ध करने के लिए अपरिग्रह महाव्रतका परिपालन करने के लिए-उस विषयतृष्णाको नष्ट करके नैराश्यभाव ( नि:स्पृहता) का ही आश्रय लिया है ।।१।। मनुष्योंकी जितनी-जितनी शरीर सम्बन्धी और धन सम्बन्धी इच्छा विस्तृत होती है उतनी ही उतनी उनकी मोहरूप गाँठ दृढ होती जाती है ।।२।। निरन्तर फैलनेवाली उस आशाको यदि रोका नहीं जाता है तो फिर वह समस्त लोकमें फैल जाती है । उस समय चूंकि वह अपनी गहरी जड़ोंको जमा लेती है, अतएव उसका काटना अशक्य हो जाता है।॥३॥ १. Y संन्यासवृद्धये । २. All others except P M N X °मवलम्ब्य ते । ३. All others except PM N T प्रसर्पति । ४. M तनोति बन्धमालासो, व तनोति बन्धमालां सा, F Vततो निरुद्धमलासी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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