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________________ २६७ -२३] १५. वृद्धसेवा 790 ) सुलभेष्वपि भोगेषु नृणां तृष्णा निवर्तते । सत्संसर्गसुधास्यन्दैः शश्वदाीकृतात्मनाम् ॥२० 791 ) कातरत्वं परित्यज्य धैयमेवावलम्बते । सत्संगजपरिज्ञानरञ्जितात्मा जनः स्वयम् ॥२१ 792 ) पुण्यात्मनां गुणग्रामसीमसंसक्तमानसैः।। तीयेते यमिभिः किं न अविद्यारागसागरः ॥२२ 793 ) तत्वे तपसि वैराग्ये परां प्रीति समश्नुते । हृदि स्फुरति यस्योच्चैवृद्ध वाग्दीपसंततिः ।।२३ च पुनः । क्रोधादिकश्मलं क्रोधादिमलोपेतं मनः निर्लेपं भवत्यपि इत्यर्थः ॥१९॥ अथ तृष्णानिवर्तनमाह। 790 ) सुलभेष्वपि-सत्संसर्गसुधास्यन्दैः सतां संबन्धामृतद्रावैः शश्वनिरन्तरम् आर्दीकृतात्मनाम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।२०।। अथ सतां संबन्धतो धैर्य भवतीत्याह । 791 ) कातरत्वं-सतां संगाज्जातपरिज्ञानरञ्जितात्मा जनः। स्वयम् आत्मना। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।२१।। अथ यमिभिर्यत्कार्य तदाह । ___792) पुण्यात्मनां-यमिभिः कुविद्यागरसागरः* कुशास्त्रविषसमुद्रः किं न तीर्यते। अपि तु तीर्यते एव । कीदृशैः। पुण्यात्मनां गुणग्रामसीमासंसक्तमानसैः गुणसमूहमर्यादास्थापितचित्तै. रिति सूत्रार्थः ।।२२।। अथ पुनर्वृद्धसेवाफलमाह । ___793 ) तत्त्वे तपसि-यः तत्त्वे परमार्थे तपसि वैराग्ये परां प्रकृष्टां प्रीति समश्नुते प्राप्नोति । उनकी सेवा किया करते हैं। ऐसे महापुरुषोंका क्रोधादि कषायोंके द्वारा कलुषित हुआ भी मन निर्मल हो जाता है ॥१९॥ जिनकी आत्मा सत्समागमरूप अमृत के प्रवाहसे निरन्तर आर्द्र ( गीली ) की गयी है उन मनुष्योंकी विषयतृष्णा भोगोंके सुलभ होनेपर भी शान्त हो जाती है ॥२०॥ जिस मनुष्यकी आत्मा सत्संगतिसे उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञानसे अनुरंजित है वह कातरताको छोड़कर स्वयं धैर्यका ही आश्रय लेता है ॥२१॥ जिन साधुओंका मन पुण्यपुरुषोंके गुणसमूहकी सीमामें संलग्न है वे क्या अज्ञानतासे परिपूर्ण रागरूप समुद्रको पार नहीं करते हैं ? अवश्य करते हैं। अभिप्राय यह है कि जो महापुरुषोंके समागममें रहकर उनके उत्तमोत्तम गुणोंको ग्रहण किया करते हैं उनका मिथ्याज्ञान एवं राग-द्वेष आदि नष्ट हो जाते हैं ।।२२।। जिसके हृदयमें वृद्ध जनके वचनरूप दीपोंकी परम्परा अतिशय प्रकाशमान है वह तत्त्वचिन्तन, तपश्चरण और वैराग्यभावनामें उत्कृष्ट प्रीतिको प्राप्त होता है ।।२३॥ १. All others except P सीमासंसक्त। २. L S T F V Y R कुविद्या; JX कुविद्यागरसा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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