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________________ १६८ ज्ञानार्णवः 471) अस्मिन् संसारकक्षे यमभुजगविषाक्रान्तनिःशेषसत्त्वे क्रोधाद्युत्तुङ्गशैले कुटिलगतिसरित्पातसंतानभीमे । मोहान्धाः संचरन्ति स्खलन विधुरिताः प्राणिनस्तावदेते यावद्विज्ञानभानुर्भवभयदमिदं नोच्छिनत्यन्धकारम् ||२३ इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे आचार्य श्रीशुभचन्द्रविरचिते ज्ञानोपयोगः ॥७॥ 471) अस्मिन् - तावदेते प्राणिनो मोहान्धाः संचरन्ति । क्व । अस्मिन् संसारकक्षे भवघने । कीदृशे । यमभुजगविषाक्रान्त निःशेषसत्त्वे मृत्युसपंग रलव्याप्तसर्वजीवे । पुनः कीदृशे । क्रोधाद्युतुङ्गशैले क्रोधमान माया लोभोच्चपर्वते । पुनः कीदृशे । कुटिलगति सरित्पातसंतान भीमे वक्रगतिनदीपातसमूह रौद्रे इति सूत्रार्थः ॥२३॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्य विरचिते ज्ञानार्णवसूत्रे योगप्रदीपाधिकारे पण्डितनयविलासेन साहपासा तत्पुत्र-साहटोडर - तत्कुलकमलदिवाकर साहरिखिदासश्रवणार्थं पण्डितजिनदासोद्यमेन ज्ञानोपयोगव्याख्यानं समाप्तम् । सप्तमसंधिः ||७|| - श्रीटोडरकुलचन्द्रः कारुण्यपुण्यभासमानसबुद्धिः । ऋषिदासः श्रीयुक्तः जीयाद् जिननाथतद्भक्तः । इत्याशीर्वादः । अथ सम्यग्ज्ञानदर्शनपूर्वकं चारित्रं भवतीत्यतः "चारित्रमाह । [ ७.२३ है, व्यसनरूप बादलोंके उड़ाने में वायुका काम करता है, समस्त तत्त्वोंके प्रकाशित करने में अद्वितीय दीपक के सदृश है तथा विषयरूप मछलियोंको नष्ट करनेके लिए जालके समान है, उसका तू आराधन कर - उसको सम्पादित करनेका प्रयत्न कर ||२२|| १. X Y ज्ञानोपयोगप्रकरणम् । Jain Education International जिस संसाररूप वनके भीतर समस्त प्राणी यमरूप सर्पके विषसे व्याप्त हो रहे हैं, जहाँपर क्रोधादि कषायोंरूप ऊँचे पर्वत स्थित हैं, तथा जो कुटिलगति - नरकादि दुर्गतियोंरूप टेढ़ी-मेढ़ी बहनेवाली नदियों में गिरनेके प्रवाहसे भयानक है, उस संसाररूप वनके भीतर ये मोहसे अन्धे हुए प्राणी इधर-उधर गिरने - पड़नेसे व्याकुल होकर तभी तक संचार करते हैं जब तक कि विज्ञानरूप सूर्य संसाररूप भयको देनेवाले उस अन्धकारको नष्ट नहीं करता है। तात्पर्य यह कि प्राणीके जब तक अविवेक रहता है तभी तक वह संसार परिभ्रमणके दुखको सहता है, और जब वह उस अविवेकको छोड़कर प्रबुद्ध हो जाता है तब वह उस संसार परिभ्रमणके दुखसे छूटकर निर्वाध व अविनश्वर सुखको प्राप्त कर लेता है ||२३|| 1 इस प्रकार आचार्य श्री शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव योगप्रदीपाधिकार में ज्ञानोपयोग प्रकरण समाप्त हुआ ||७|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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