SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - २७ ] ४. ध्यानगुणदोषाः 315 ) हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गुकः || २६*३ || इति । 3 (316) कारकादिक्रमो लोके व्यवहारच जायते । न पक्षे ऽन्विष्यमाणो ऽपि सर्वथैकान्तवादिनाम् || २७ (315) हतं ज्ञानं - क्रियाशून्यं ज्ञानं हतं नष्टम् । च पुनः । अज्ञानिनः क्रिया हता । अन्धकः धावन्नपि नष्टः । च पुनः । पश्यन् पङ्गुको नष्टः । इति सूत्रार्थः || २६ * ३ || अर्थकान्तवादिनां क्रिया १०९ भावत्वमाह । 316 ) कारकादिक्रमो—-लोके कारकादिक्रमो क्रिया- कारकादिक्रमो जायते । च पुनः । व्यवहारो जायते । एकान्तवादिनां स व्यवहारः सर्वथा पक्षे अन्विष्यमाणो ऽपि न भवतीत्यर्थः ॥ २७ ॥ उक्तं च । अथ क्रममाह । पृथ्वी । Jain Education International जिस प्रकार क्रियासे रहित कोरा ज्ञान नष्ट होता है-व्यर्थ होता है-उसी प्रकार अज्ञानीकी क्रिया भी व्यर्थ होती है । ठीक है — ज्ञानहीन अन्धा मनुष्य मार्गका ज्ञान न होने से जिस प्रकार इधर-उधर भागता हुआ भी अग्निमें जलकर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार लँगड़ा मनुष्य भागने की क्रियासे रहित होने के कारण अग्निको देखता हुआ भी उसमें जलकर नष्ट हो जाता है || २६*३॥ लोक में सर्वथा एकान्त दृष्टि रखनेवाले वादियोंके पक्ष में- उनके मतके अनुसारखोजा जानेवाला भी कारकोंका क्रम नहीं बनता है और न लोकव्यवहार भी उस अवस्था में चल सकता है ॥ विशेषार्थ - सर्वथा नित्यत्व आदि एकान्त पक्षको स्वीकार करनेवाले वादियोंके यहाँ-वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य और बौद्ध आदि मतोंमें - जो विभिन्न प्रकारके कार्योंके लिए विविध प्रकारके कर्ता आदि कारकों की गवेषणा की जाती है वह व्यर्थ होगी । उदाहरण स्वरूप वैशेषिक और नैयायिक द्रव्यों में दिशा, काल, आकाश, आत्मा, मन और पृथिव्यादिके परमाणुओंको; गुणोंमें परम महत्त्वादिको तथा सामान्य, विशेष और समवाय इन पदार्थों को भी सर्वथा नित्य मानते हैं । सो उनके मतानुसार जब ये सर्वथा ही नित्य हैं तब वे जिस स्वरूपमें कर्तादि कारकों की उपस्थितिके पूर्व में थे उसी स्वरूपमें उनकी उपस्थितिके समय भी रहेंगे, क्योंकि, सर्वथा नित्य - एक ही स्वरूप में अवस्थित - होने से उनमें किसी प्रकारके विकारकी सम्भावना नहीं है । अतएव उन कर्तादि कारकोंकी योजना व्यर्थ सिद्ध होती है । और यदि कर्तादि कारकोंकी उपस्थिति में उनके स्वरूपमें कुछ परिवर्तन होता है तो फिर उनके द्वारा मानी गयी सर्वथा नित्यताके व्याघातका प्रसंग अनिवार्य होता है। इसके अतिरिक्त जब आत्मा आदि सर्वथा नित्य हैं तो वे विकारसे रहित - अपरिणमनस्वभाव - होनेसे स्वयं कर्तादिकारकस्वरूपको नहीं प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि, क्रियाविशिष्ट द्रव्यको ही कारक कहा जाता है । सो वह क्रियाविशिष्टता सर्वथा नित्यस्वरूपसे अभिप्रेत उक्त आत्मा आदि में सम्भव नहीं है । इस प्रकार सर्वथा नित्यत्व पक्ष के ग्रहण करनेपर लोकमें जो कार्य-कारण आदिका व्यवहार देखा जाता है वह तथा १. B क्रिया शून्या । २. PM इति । ३. M N लोकव्यवहारश्च । ४. LS माणेऽपि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy