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________________ -११] १०१ ४. ध्यानगुणदोषाः 292 ) न प्रमादजयः कतु धीधनैरपि पार्यते । ___महाव्यसनसंकीर्णे गृहवासे ऽतिनिन्दिते ॥९ 293 ) शक्यते न वशीकतं, गृहिभिश्चपलं मनः। अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहस्थितिः ॥१० 294 ) प्रतिक्षणं द्वन्द्वशतार्तचेतसां नृणां दुराशाग्रहपीडितात्मनाम् । नितम्बिनीलोचनचौरसंकटे गृहाश्रमे नश्यति पारमार्थिकम् ॥११ 292) न प्रमादजयः-धीवनैः प्रमादजयः कतु न पार्यते । क्व । गृहवासे। कीदशे। अतिनिन्दिते । पुनः कोदृशे। महाव्यसनसंकोणे महाकष्टव्याप्ते इति सूत्रार्थः ॥९॥ अथ मनश्चञ्चलत्वमाह। 293 ) शक्यते न वशीकर्तुम्-गृहिभिः मनो वशोकतु न शक्यते । अतः कारणात् चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्भिः गृहस्थितिः त्यक्ता इति सूत्रार्थः ॥१०॥ अथात्मनो हिताभावमाह । वंशस्थ । 294 ) प्रतिक्षणं द्वन्द्व-नृणां गृहाश्रमे। च पादपूरणे। आत्मनो* हितं" नश्यति । कीदृशां नृणाम् । प्रतिक्षणं द्वन्द्वशतार्तचेतसां क्लेशशतपीडितचित्तानाम् । पुनः कीदृशां नृणाम् । दुराशाग्रहपीडितात्मनाम् । सुगमम् । कोदृशे। नितम्बिनीलोचनचौरसङ्कटे इति सूत्रार्थः ॥११॥ पुनस्तदेवाह । जो गृहका निवास तीव्र दुःखोंसे व्याप्त व अतिशय निन्दित है उसमें अत्यन्त बुद्धिमान मनुष्य भी उस प्रमादको जीतनेके लिए समर्थ नहीं होते ।।२।। गृहस्थ जन चंचल मनको वशमें करनेके लिए समर्थ नहीं हैं। इसीलिए सत्पुरुषोंने उस मनकी शान्तिके लिए-उसे वशमें करके ध्यानको सिद्ध करने के लिए-उक्त गृहनिवासका परित्याग किया है ॥१०॥ स्त्रियोंके नेत्ररूप चोरोंसे विषम ( भयानक ) उस गृहस्थाश्रममें-गृहनिवासमेंमनुष्योंका मन सैकडों झंझटोंसे व्यथित तथा दट्र तष्णारूप पिशाचसे पीडित रहा इसीलिए गृहके भीतर रहते हुए मनुष्योंकी-परमार्थता-संयम व मुक्तिका भाव-नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि घरमें रहते हुए अनेक चिन्ताओंका सामना करना पड़ता है। अतएव वहाँ रहते हुए प्राणी मोक्षके साधनभूत संयम, तप एवं ध्यान आदिका आचरण नहीं कर सकता है ॥११॥ at १. All others except PM X प्रमादजयं । २. All others except P M S]X गृहे स्थितिः । ३. M N JB गृहाश्रमे नश्यति चात्मनो हितम, LF VCXY स्वात्मनो हितं, S T R गृहाश्रमे स्वात्महितं न सिध्यति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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