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ज्ञानार्णव
साहित्यमें तो इन चारों ध्यानोंके नामों तकका भी उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी आचार्य हेमचन्द्रने अपने योगशास्त्रमें ज्ञानार्णवकी शैली में ही उनका विस्तारसे कथन किया है । प्रायः विद्वानोंका यही मत रहा है कि हेमचन्द्राचार्यने शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णवका ही अनुसरण किया है । किन्तु इधर दो लेख दृष्टिगोचर हुए जिनमें शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवको हेमचन्द्रके योगशास्त्रका रूपान्तर कहा है।
इसमें तो सन्देह नहीं कि दोनों में इतनी एकरूपता है कि दोनोंमें से कोई एक दूसरेका रूपान्तर अवश्य है । किन्तु कौन किसका रूपान्तर है यही विचारणीय है। आचार्य हेमचन्द्रका समय तो निश्चित है। उनका स्वर्गवास वि. सं. १२२९ में हुआ था। अतः यह निश्चित है कि उनका योगशास्त्र उससे पूर्व रचा गया था। किन्तु आचार्य शुभचन्द्रका समय अज्ञात है। पं. आशाधरने भगवती आराधनाकी अपनी टीकामें ज्ञानार्णवसे कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। और इस मूलाराधनाका उल्लेख आशाधरने जिनयज्ञकल्पकी अपनी प्रशस्तिमें किया है और उसी प्रशस्तिमें उसका रचनाकाल विक्रम संवत् १२८५ दिया है। इससे स्पष्ट है कि जिस मूलाराधना दर्पणमें ज्ञानार्णवसे श्लोक उद्धृत किये गये हैं वह वि. सं. १२८५ से पूर्वमें रचा गया था
और ऐसी स्थितिमें ज्ञानार्णव उससे भी पहले रचा जा चुका था। किसी ग्रन्यसे कोई अन्य ग्रन्थकार तभी उद्धरण देता है जब वह प्रचलित होकर ज्ञानियोंमें अपना स्थान बना लेता है और उसमें कुछ समय तो लगता ही है । तब पाटणको प्रतिके अन्तमें दिये गये उसके लेखनकाल संवत् १२८४ को ही उसका रचनाकाल कैसे माना जा सकता है। १२८४ से पूर्व तो आशाधरका मूलाराधनादर्पण ही रचा गया था जिसमें ज्ञानार्णवसे श्लोक उद्धृत हैं।
पाटणकी प्रतिकी लेखक प्रशस्ति भी विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है। उसके पहले अन्तिम पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है- 'इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पण्डिताचार्यश्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते।' तथा प्रशस्तिके अन्तिम दो श्लोक इस प्रकार हैं
तया कर्मक्षयस्याथं ध्यानाध्ययनशालिने । तप:श्रुतनिधानाय तत्त्वज्ञाय महात्मने ।।
रागादिरिपुमल्लाय शुभचन्द्राय योगिने । लिखाप्य पुस्तकं दत्तमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ।। आगे अन्तिम वाक्य इस प्रकार है-संवत् १२८४ वर्षे वैशाख सुदि १० शुक्रे गोमंडले दिगम्बरराजकुलसहस्रकीति (तं) स्यार्थे पं. केशरीसुतवीसलेन लिखितमिति ।
उक्त भ्रमका कारण यह है कि ज्ञानार्णवके रचयिताका तथा जिसे लिखाकर पुस्तक भेंट की गयी उनका नाम समान है। यदि नाम समान न होता तो ग्रन्थके लिपिकालको ही उसका रचनाकाल मान लेनेकी गलती न की जाती। किन्तु नाम समान होनेपर भी दोनोंकी उपाधियोंमें भिन्नता है। इसके सिवाय यह भी विचारणीय है कि यदि जिस शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव रचा उन्हें ही उसकी प्रति भेंट की गयी तो क्या जिस शुभचन्द्र योगीकी प्रशंसामें दो श्लोक रचे गये उनमें इतनी बड़ी बात छोड़ दी जाती कि जिन्होंने इस ग्रन्थको रचा उन्हें ही यह पुस्तक दी गयी। रचयिताको ही उसकी पुस्तक लिखाकर दी जाये और इतनी विस्तृत प्रशस्तिमें इतनी मौलिक बात छुट जाये या छोड़ दी जाये यह तो अत्यन्त ही आश्चर्यजनक है।
फिर अन्तिम वाक्यमें कहा है कि संवत् १२८४ वर्षमें वैसाख सुदी १० शुक्रवारको गोमण्डलमें दिगम्बर राजकुल सहस्रकीति के लिए केशरीसुत वीसलने लिखा।
विचारणीय यह है कि यह वि. सं. १२८४ लेखनकाल तो उस प्रतिका है जो वीसलने सहस्रकीतिके लिए दी थी। और वह प्रति वही है जिसपर उसका लेखनकाल लिखा है। क्या वही प्रति जाहिणीने लिखाकर शभचन्द्र योगीको दी थी। तब यह अन्तिम लेखकप्रशस्ति किस प्रतिकी है? हमें लगता है कि जिस प्रतिसे यह प्रति की गयी है उसमें उक्त प्रशस्ति रही है। और उसीको प्रतिलिपि पाटणकी प्रतिमें है। यह प्रति वह प्रति नहीं है जिसे जाहिणीने लिखाकर शुभचन्द्र योगीको भेंट किया था। वह प्रति इससे भी प्राचीन रही है।
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