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________________ ५४ ज्ञानार्णवः 145 ) अचिच्चिद्रपयोरैक्यं बन्धं प्रति न वस्तुतः | अनादिश्चानयोः श्लेषः स्वर्णकालिकयोरिव ॥९५ 146) इह मूर्तममूर्तेन चलेनात्यन्तनिश्चलम् । शरीरमुह्यते मोहाच्चेतनेनास्तचेतनम् ॥ ९६ 145 ) अचिच्चिद्रूपयोरैक्यं - वस्तुतः परमार्थतः निश्चयनयात् अचिच्चिद्रूपयोरैक्यं बन्धं प्रति ऐक्यं न भवति । च पुनः । अनयोर्ज्ञानाज्ञानयोः श्लेषः संबन्धः अनादिः । कयोरिव । स्वर्णकालिकयोरिव । स्वर्णकालिकयोरैक्याभावात् । उपचारात् अनादिः श्लेषो वर्तते इति सूत्रार्थः ॥९५॥ अथ मूर्त मूर्तसंबन्धमाह । 1 146) इह मूर्तममूर्तेन - इह संसारे मूर्तशरीरम् अमूर्तेन जीवेन मोहात् अज्ञानात् मुह्यते * [ २.९५ होने से वे उस चमड़े के साथ ही पृथक हो जाते हैं उसी प्रकार स्त्री, पुत्र- मित्र एवं धन-सम्पत्ति आदिका सम्बन्ध शरीरके ही साथ है, न कि आत्मा के साथ - आत्माका निश्चयसे न कोई ब्राह्मण आदि वर्ण है, न जाति है, और न पिता-पुत्रादि सम्बन्ध भी । व्यवहार में वह शरीर के साथ जिस वर्ण, जाति एवं वंश आदिमें उत्पन्न होता है उसी वर्ण आदिका मरण पर्यन्त ही माना जाता है । इस प्रकार से यह निश्चित है कि वह आत्मा शरीर आदिसे सर्वथा भिन्न है । अतएव शरीर आदिको अपना मानकर उन्हीं में अनुरक्त रहना और आत्महित न करना, अज्ञानता है ||१४|| Jain Education-International । अचित्स्वरूप शरीर और चित्स्वरूप आत्मा इन दोनोंमें जो अभेद देखा जाता है वह बन्धकी अपेक्षा ही देखा जाता है, वस्तुतः स्वभावसे वे दोनों पृथक-पृथक हैं । और उन दोनोंका जो वह सम्बन्ध है वह सुवर्ण और उसकी कालिमाके सम्बन्धके समान अनादि है । विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सुवर्णका उसकी कालिमा के साथ अनादि से सम्बन्ध रहा है उसी प्रकार आत्माका सम्बन्ध भी कर्मके साथ अनादि कालसे चला आता है - वह अनादि कालसे कर्मबद्ध होकर पूर्वबद्ध कर्मकी निर्जरा ( सविपाक ) और नवीन कर्मका बन्ध प्रति समय करता रहा है। इतना अवश्य है कि जिस प्रकार वह सुवर्ण और कालिमाका सम्बन्ध अनादि होकर भी अग्निके संयोगसे नष्ट होता हुआ भी देखा जाता है— अग्निके नियमित तापके द्वारा वह सुवर्ण उस कालिमासे पृथक् होकर अपने शुद्ध स्वरूपमें आ जाता है - उसी प्रकार जीव और कर्मका भी वह अनादि सम्बन्ध नष्ट किया जा सकता है। यदि कोई जीव मुनिधर्मको धारण करके गुप्ति एवं समितियों आदिके द्वारा नवीन कर्मोंका निरोध ( संवर ) और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा ( अविपाक ) करता है तो वह उस कर्मबन्धसे सर्वथा रहित होकर मुक्त हो जाता है। यही जीवका निज स्वरूप है जो इसके पूर्व कर्मसम्बद्ध रहने के कारण प्रगट नहीं था || १५|| यह चेतन आत्मा, जो कि स्वभावसे अमूर्त व चल है - ऊर्ध्व गमन स्वभाववाला है, मोह वशीभूत होकर इस अचेतन मूर्त और निश्चल - चेतन आत्माकी प्रेरणा के बिना एक १. PJ जीवेनात्यन्त । २. M N शरीरं मुह्यते, T शरीरी मुह्यते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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