________________
आचारदिनकर (भाग-२)
41 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान पंचकल्पसूत्र के अनुसार अंगशास्त्रों के श्रुतस्कन्धों का उद्देश, अर्थात् पाठग्रहण शुक्लपक्ष में ही होता है। आचारशास्त्र के ग्रन्थों में तृतीया, पंचमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी - ये तिथियाँ अध्ययन हेतु उपयुक्त बताई गई हैं। पुनः उपर्युक्त तिथि, वार, नक्षत्रों में चन्द्रबल देखकर अध्ययन (का प्रारम्भ) करना चाहिए। इस प्रकार स्वाध्यायकाल और अस्वाध्यायकाल को सम्यक् प्रकार से समझ लेना चाहिए। योग के आरम्भ में योगवाही लोच करे और उपधि धोए। सभी आश्रयों का त्याग करे। वसति, उपकरण आदि तर्पणी के कल्प्यजल से धोए। कल्प्यतर्पण की विधि ऋतुचर्या में वर्णित है।
चातुर्मासकाल के मध्य में व्रत, उपधानयोग का आरम्भ करते समय वर्ष, मास आदि की शुद्धि न देखे, मात्र दिन की शुद्धि का विचार करे। मृदु, ध्रुव, चर एवं क्षिप्र नक्षत्र, मंगल और शनिवार के अतिरिक्त अन्य वार आघाटन (प्रथम बार भिक्षाटन), तप, नंदी, आलोचना आदि में शुभ कहे गए हैं। मृत्युयोग आदि का वर्जन करके मृगशिरा आदि दस विद्या नक्षत्रों में, अमृतसिद्धियोग और रवियोग में शुभ शकुनों में योगोद्वहन का आरम्भ करे। अब आगम के विभागों का उल्लेख किया जा रहा है - १. श्रुत २. श्रुतस्कन्ध ३. अध्ययन ४. शतक ५. वर्ग - ये उद्देश कहलाते हैं। श्रुत पूर्ण आगम हैं, जैसे - उत्तराध्ययन, आचारांग आदि सभी आगम। श्रुतस्कन्ध श्रुत दलरूप हैं, वे योगोद्वहन की वाचना में खण्ड या विश्रामरूप हैं। एक विषय के विवेचन की समाप्ति अध्ययन है। श्रुतस्कन्ध के विभाग भी अध्ययनरूप हैं। योगोद्वहन की संख्या भी अध्ययनरूप है। वाचना में विश्रामरूप विभाग को भी अध्ययन कहते हैं। कितने ही आगमों में अध्ययन का अभाव होता है। वहाँ उनकी शतक ऐसी संज्ञा होती है, उनमें भी अध्ययन के समान प्रक्रिया होती है। उनके खण्ड के रूप में वर्ग होते हैं और उनके भी विभाग उद्देश होते हैं। अध्ययन और शतक को विभाजित करने वाले छोटे खण्ड उद्देशक होते हैं। वे कितने ही योगोद्वहन में पृथक् समझाए जाते हैं और वे आदि-अन्तिम एवं अविभक्त होते हैं। इस प्रकार वे उद्देश आदि समरूप होते हैं। योगोद्वहन में नंदी, कालग्रहण, खमासमणा आदि के प्रसंग में जो उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा का वर्णन है, वहाँ वे उद्देश आदि उस सिद्धांत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org