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________________ आचारदिनकर (भाग- २) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान योग न करे । गणियोग भी आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा के मध्य पूर्ण हो जाए, इस प्रकार से करे अन्य समय में विशेष रूप से चैत्र शुक्ल पंचमी से लेकर वैशाख कृष्ण प्रतिपदा तक तथा चातुर्मासकाल में आश्विन शुक्ल पंचमी से लेकर कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा तक बारह दिन सभी जगह कुल - देवताओं की पूजा के लिए प्राणियों का वध होने से महान अस्वाध्यायकाल माना जाता है । उस समय आगम का अध्ययन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह काल इस हेतु उपयुक्त नहीं है । अध्ययन हेतु कालग्रहण श्रावण, भाद्रपद एवं अर्द्ध आश्विन, अर्थात् श्राद्धपक्ष की अमावस्या तक पूर्ण कर लेना चाहिए, उसके बाद आश्विन शुक्ल पक्ष को छोड़कर आवश्यक होने पर पुनः कार्तिक मास में भी कालग्रहण कर सकते हैं। अन्य अस्वाध्यायकाल इस प्रकार होते है आर्द्रा से प्रारम्भ करके स्वाति नक्षत्र के अन्त तक के नक्षत्रों में जब रवि दसवें स्थान पर हो, ऋतु स्वभाव से विद्युत का गर्जन एवं वर्षा हो, तो अस्वाध्यायकाल नहीं होता है, किन्तु इस काल में भी उल्कापात होने पर एक प्रहर का अस्वाध्याय और गर्जना होने पर दो प्रहर का अस्वाध्याय होता हैं। शेष समय में विद्युत आदि के गर्जन से हमेशा ही अस्वाध्यायकाल होता है । सूर्य या चंद्र ग्रहण होने पर अहोरात्र का, अर्थात् एक दिन और रात का अस्वाध्यायकाल होता है । योगोद्वहन क्षेत्र के चारों दिशाओं में भी छः हाथ तक जिन-जिन स्थितियों में अस्वाध्यायकाल माना है, वे इस प्रकार से हैं :- पंचेन्द्रिय जीव का मरण होने पर, अथवा उनके मृत देह का मक्षिका जितना भी अंश होने पर तीन प्रहर का अस्वाध्यायकाल होता है अथवा “ अहोरत्तिति" इस आगमवचन से एक दिन-रात का अस्वाध्यायकाल होता है । दूसरे दिन सूर्योदय होने पर अर्थात् अहोरात्रि के व्यतीत हो जाने पर स्वाध्याय योग्य समय होता है । " अट्ठदिणा ते उ सत्त सुक्कहिए " - इस आगमवचन से समीप के गृह में साठ हाथ की सीमा में प्रसूता स्त्री के होने पर सात - आठ दिन का अस्वाध्यायकाल होता है । इस प्रकार के अस्वाध्यायकाल को छोड़कर दूसरे काल में अर्थात् स्वाध्याय के काल में कालग्रहण, अर्थात् आगमपाठ या स्वाध्याय आदि करे । - 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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