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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान और दूसरे के लिए बनाए गए आवास ही योगोद्वहन के लिए अच्छे माने जाते हैं।
मल उत्सर्ग करने के लिए स्थण्डिल भूमि इस प्रकार की होनी चाहिए - निर्जन, अर्थात् लोगों के आवागमन से रहित हो, जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति से भी रहित, अर्थात् निर्जीव हो, जल, वनस्पति, तृण, सर्प के बिल से और सूक्ष्म बीजादि से रहित हो - ऐसी स्थण्डिल भूमि योगवाही को मल-मूत्र विसर्जन हेतु श्रेष्ठ है। योगवाही के उपकरण इस प्रकार के होने चाहिए - मिट्टी, तुम्बी या लकड़ी से निर्मित, रंगे हुए तथा अत्यन्त साफ किए हुए शुद्ध पात्र तथा उसको लपेटने एवं बांधने का वस्त्र भी पर्याप्त, नया और स्वच्छ होना चाहिए। साथ ही नई पात्ररज्जू (पात्रे की डोरी) तथा वस्त्र सहित उत्तम संस्तारक, छोटी पूंजणी और गोल आकार की कालग्रहण की दण्डी, आचारशास्त्र की पुस्तक, नंदी, वासक्षेप, समवसरण, प्रासुक जल, जूं आदि से रहित वस्त्र उपकरण योगोद्वहन में अपेक्षित हैं। योगवाही को दाँत के बिना तृप्त करने वाले पेय पदार्थों एवं जल आदि का नित्य प्रथम प्रहर में त्याग करना आवश्यक होता है। . योगोद्वहन का काल इस प्रकार है - जब सुभिक्ष हो, साधुओं को उनकी आवश्यक वस्तुएँ सर्वसुलभ हों और विपत्तियों का अभाव हो, वह काल कालिक एवं उत्कालिक योगों के लिए उचित माना जाता है। आर्द्रा नक्षत्र के प्रारम्भ से स्वाति नक्षत्र के अन्त तक के सूर्य के उदय से युक्त नक्षत्र ही कालिक योगों के लिए उपयोगी कहे गये हैं। आर्द्रा नक्षत्र से लेकर स्वाति नक्षत्र के अन्त तक के नक्षत्रों में सूर्य का उदय न रहने से विद्युत, बादल की गड़गड़ाहट एवं वृष्टि होने की स्थिति में काल-ग्रहण का समय, अर्थात् स्वाध्यायकाल होने पर भी योगोद्वहन नहीं करना चाहिए।
योगोद्वहन की चर्या इस प्रकार है - रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में मुनि को हमेशा जाग्रत रहना चाहिए, परन्तु योगवाही को तो प्रतिक्षण जाग्रत रहना चाहिए। वह हास्य, काम-वासना, विकथा, शोक, रति-अरति का त्याग करे। पच्चीस धनुष परिमाण भूमि से अधिक जाना हो, तो योगवाही मुनि हमेशा अन्य मुनि को साथ लेकर ही जाए, अकेला न जाए। सौ धनुष भूमि के आगे जाने पर
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