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________________ आचारदिनकर ( भाग - २ 28 Jain Education International जैनमुनि जीवन के विधि-विधान // इक्कीसवाँ उदय // योगोद्वहन-विधि मन, वचन और काया की समाधिरूप तप साधना से योजित होने को योग कहते हैं अथवा आगम या सिद्धांत-ग्रन्थों की वाचना ( अध्ययन ) के हेतु अन्यत्र उल्लेखित विधि के अनुसार तत्सम्बन्धी तप साधना से आत्मा को जोड़ना योग है। आगम-ग्रन्थों का क्रमिक अध्ययन ( उद्वहन) अनेक प्रकार से होता है । उनके अध्ययन हेतु तप, कायोत्सर्ग पारण-विधि, कालग्रहण एवं स्वाध्याय आदि को निर्धारित क्रम से करना योगोद्वहन है । किस प्रकार के गुणों से युक्त साधु योगोद्वहन के योग्य होता है एवं किस प्रकार के गुणों से युक्त गुरु योगोद्वहन करवा सकता है और योगोद्वहन में किस प्रकार के साधु सहायक होते हैं ? इन सब का विचार इस योगोद्वहनविधि में किया गया है। कार्य को करने वाला, उसके निमित्त या सहायक और उसकी विधि का स्वरूप यहाँ क्रमशः निर्देशित किया गया है। योगोद्वहन करने वाला योगवाही कार्य का कर्त्ता होता है। योगोद्वहन के निमित्त कारण होते हैं - गुरू, सहायकसाधु क्षेत्र, उपकरण, कालग्रहण, भिक्षाग्रहण आदि । इसी क्रम से यहाँ योगवाही आदि की व्याख्या की जा रही है । योगवाही के लक्षण मौनी, परीषह को सहन करने में समर्थ, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित, बलवान्, राजा और रंक अथवा शत्रु और मित्र में समभाव रखने वाला, मन-वचन-काया से गुरु एवं मुनिजनों की प्रसन्नतापूर्वक भक्ति करने वाला, कुशल, दयालु, श्रुतशास्त्र के कल्याणकारी वचन जिसने सुने हो, पापकार्यों के प्रति जिसके मन में लज्जा का भाव हो, वैराग्यवासित तथा बुद्धिमान हो, तृषा और निद्रा पर जिसने विजय प्राप्त कर ली हो, जो अस्खलित रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला हो, प्रायश्चित्त के द्वारा जिसने पापकर्मों का विनाश कर दिया हो, जो बाह्य और आभ्यन्तर रूप से रसलोलुप न हो, जिसने कषाय आदि अन्तरंग शत्रुओं को पूर्णरूपेण जीत लिया हो, - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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