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आचारदिनकर (भाग-२)
24 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान तीन योग से करता हूँ, अर्थात् मैं मन से, वचन से, काया से (मृषावाद) न स्वयं बोलूंगा, न दूसरों से असत्य बुलवाऊंगा और न असत्य बोलने वाले का अनुमोदन करूंगा।"
"हे भगवन् ! मैं अतीत में किए हुए मृषावाद से निवृत्त होता हूँ। उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति अपने ममत्व का त्याग करता हूँ।" इस सत्यव्रत का तीन बार उच्चारण करे, "हे भगवन् ! इस प्रकार मैं द्वितीय महाव्रत की साधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ।" इसमें सर्व-मृषावाद से विरत होना होता है।
पुनः “हे भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत में अदत्तादान से विरत होता हूँ। हे भगवन् ! मैं सर्व प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि - गाँव में, नगर में, या अरण्य में (कहीं भी) वस्तु अल्प हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचित्त हो या अचित्त (किसी भी) वस्तु को बिना दिए न स्वयं ग्रहण करना, न दूसरों से अदत्त वस्तु का ग्रहण करवाना और न अदत्त वस्तु का ग्रहण करने वाले किसी व्यक्ति का अनुमोदन करना - यह प्रतिज्ञा मैं यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से करता हूँ अर्थात् मैं मन से, वचन से और काया से न तो स्वयं अदत्त वस्तु को ग्रहण ही करूंगा, न दूसरों से करवाऊंगा और न ग्रहण करने वाले अन्य किसी व्यक्ति का अनुमोदन ही करुंगा।"
"हे भगवन् ! मैं अतीत में गृहीत अदत्तादान से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्ववृत्ति का त्याग करता हूँ।" इस महाव्रत की प्रतिज्ञा का भी तीन बार उच्चारण करे।
"हे भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत-साधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ, इसमें सर्व प्रकार के अदत्तादान से विरत होना होता है।"
इसके पश्चात् "हे भगवन् ! चतुर्थ महाव्रत में मैथुन से निवृत्त होना होता है। मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। चाहे वह देव सम्बन्धी हो, मनुष्य सम्बन्धी हो अथवा तिथंच से सम्बन्धित हो, मैथुन का न स्वयं सेवन करना, न दूसरों से कराना, न सेवन करने वालों का अनुमोदन करना, यह प्रतिज्ञा मैं यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से करता हूँ, अर्थात् मैं मन से, वचन
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