________________
आचारदिनकर (भाग-२)
23
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान अनुज्ञा और अनुयोग का प्रवर्तन होता है। पुनः इनके स्वयं पढ़ने और पढ़ाने का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होता है।
यहाँ खमासमणासूत्र से वंदन करके शिष्य कहे - "क्षमाश्रमण के हाथों से प्राप्त सूत्र, अर्थ, सूत्र और अर्थ दोनों को मैं अनुज्ञात करता हूँ, मैं अनुज्ञात करता हूँ।"
फिर गुरु और शिष्य महाव्रत के आरोपणार्थ पूर्ववत् कायोत्सर्ग की क्रिया करे। तत्पश्चात् खड़े होकर गुरु और शिष्य तीन बार परमेष्ठी-मंत्र बोलें, तत्पश्चात् गुरु हाथ जोड़कर दोनों हाथों के ऊपर ओघा रखकर बाएँ हाथ की अनामिका की सहायता से मुखवस्त्रिका को ग्रहण कर, उस शिष्य को, जो हाथ जोड़कर मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण को धारण किए हुए है, एक-एक करके रात्रिभोजन परित्यागवत सहित पाँचों महाव्रतों का तीन-तीन बार उच्चारण कराए। पाँचो महाव्रत और रात्रि-भोजन के प्रत्याख्यान इस प्रकार हैं :
"हे भगवन् ! पहले महाव्रत में प्राणातिपात का त्याग करता हूँ। हे भगवन् ! मैं सभी प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूक्ष्म या स्थूल (बादर), त्रस या स्थावर, जो भी प्राणी हैं, उनके प्राणों का अतिपात न. तो स्वयं करूंगा, न दूसरों से प्राणातिपात कराऊंगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन करूंगा। यह प्रतिज्ञा मैं यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से करता हूँ, अर्थात् मैं मन से, वचन से और काया से (प्राणातिपात) स्वयं न ही करूंगा, न दूसरों से करवाऊंगा, और न अन्य किसी करने वाले का अनुमोदन करूंगा। हे भगवन् ! मैं अतीत में किए गए प्राणातिपात से विरत होता है, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्व का त्याग करता हूँ।" - इसका तीन बार उच्चारण करे।
"हे भगवन् ! मैं प्रथम महाव्रत की साधना के लिए तत्पर हुआ हूँ। इसमें सर्व प्रकार के प्राणातिपात से विरत होना होता है।"
पुनः "हे भगवन् ! द्वितीय महाव्रत में मृषावाद का परित्याग करता हूँ। हे भगवन् ! मैं सब प्रकार के मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ। क्रोध से, लोभ से, भय से, या हास्य से न स्वयं असत्य बोलना, न दूसरों से असत्य बुलवाना और न असत्य बोलने वालों का अनुमोदन करना - यह प्रतिज्ञा मैं यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org